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[361] अष्टाविंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्दहे।
चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झई॥३५॥ आत्मा ज्ञान से जीवादि भावों को जानता है, दर्शन से श्रद्धा करता है, चारित्र से कर्म-आस्रवों का निरोध करता है और तप से परिशद्ध होता है॥ ३५ ॥
Through (right-) knowledge soul cognizes fundamentals including soul, through (right-) perception/faith it develops belief in the same, through (right-) conduct it checks the inflow of karmas and through (right-) austerities it gets purified. (35)
खवेत्ता पुव्वकम्माइं, संजमेण तवेण य। सव्वदुक्खप्पहीणट्ठा, पक्कमन्ति महेसिणो॥३६॥
-त्ति बेमि। सभी दु:खों से मुक्त होने के लिए महर्षि संयम और तप के द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों का सम्पूर्ण क्षय करके मोक्ष (निर्वाण) प्राप्त करते हैं। ३६ ॥
-ऐसा मैं कहता हूँ। In order to be free from all miseries, great sages completely destroy all karmas accumulated in the past through restraint and austerities and attain liberation (nirvana). (36)
-Sol say.
HARIRMA
a विशेष स्पष्टीकरण गाथा १-मोक्ष का मार्ग (उपाय, साधन, कारण) ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप हैं। उससे सिद्धि-गमन रूप जो गति है, वह मोक्ष-मार्ग-गति है।
गाथा २-प्रस्तुत में ज्ञान को पहले रखा है, दर्शन को बाद में। लगता है, यह व्यवहार में अध्ययन, जानकारी आदि से सम्बन्धित ज्ञान है, जो सम्यक्दर्शन से पूर्व वास्तव में अज्ञान ही रहता है। सम्यक्दर्शन होने पर ही ज्ञान सम्यक्ज्ञान होता है। इसीलिए प्रस्तुत अध्ययन के उपसंहार (गा. ३०) “नादंसणिस्स नाणं" कहा है। ___ यहाँ दर्शन से सम्यक्दर्शन अभिप्रेत है, सामान्य बोधरूप चक्षु-अचक्षु आदि दर्शन नहीं। तप भी चारित्र का ही एक रूप है।
सम्यक्ज्ञान आदि तीनों या चारों सम्मिलित रूप से मोक्ष के कारण-साधन हैं, पृथक्-पृथक् नहीं हैं। अतः “एय मग्गमणुपत्ता" में मार्ग के लिये एक वचन प्रयुक्त है। ___ गाथा ४-प्रस्तुत में श्रुतज्ञान का पहले उल्लेख है। टीकाकारों की दृष्टि में यह इसलिये है कि मति आदि अन्य सभी ज्ञानों का स्वरूपज्ञान श्रुतज्ञान से होता है। अत: व्यवहार में श्रुत की प्रधानता है। ___ "आभिनिबोधिक" मतिज्ञान का ही दूसरा नाम है। इन्द्रिय और मन का अपने-अपने शब्दादि विषयों का बोध अभिमुखतारूप से नियत होने के कारण इसे आभिनिबोधिक ज्ञान कहते हैं।