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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
अष्टाविंश अध्ययन [ 362]
गाथा ६- - गुणों का आश्रय- आधार द्रव्य है। जीव में ज्ञानादि अनन्त गुण हैं। अजीव पुद्गल में रूप, रस आदि अनन्त गुण हैं। धर्मास्तिकाय आदि में भी गतिहेतुता आदि अनन्त गुण हैं। द्रव्य का लक्षण सत् है। सत् का लक्षण उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य है। पर्याय दृष्टि से द्रव्य प्रतिक्षण उत्पन्न विनष्ट होता रहता है, और धौव्यत्व 'गुण की दृष्टि से वह मूल स्वरूपतः त्रिकालावस्थायी है, शाश्वत है।
एक द्रव्य के आश्रित गुण होते हैं । अर्थात् जो द्रव्य के सम्पूर्ण भावों में और उसकी सम्पूर्ण अवस्थाओं में अनादि अनन्त रूप से सदाकाल रहते हैं, वे गुण हैं। द्रव्य कभी निर्गुण नहीं होता । गुण स्वयं निर्गुण होते हैं। अर्थात् गुणों में अन्य गुण नहीं होते ।
गुणों के दो भेद हैं-सामान्य एवं विशेष । अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व और अगुरुलघुत्वये छह सामान्य गुण हैं, जो सामान्य रूप से प्रत्येक जीव- अजीव द्रव्यों में पाये जाते हैं। जीव में ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सुख आदि विशेष गुण हैं, जो अजीव द्रव्य में नहीं होते। पुद्गल अजीव में रूप, रस, गन्ध आदि विशेष गुण हैं, जो जीव द्रव्य में नहीं होते। प्रतिनियत गुण विशेष होते हैं जिसके १६ भेद हैं।
सहभावी गुण होते हैं और क्रमभावी पर्याय । एक समय में एक गुण की एक पर्याय ही होती है। एक साथ अनेक पर्याय कभी नहीं होतीं। वैसे अनन्त गुणों की दृष्टि से एक-एक पर्याय मिलकर एक साथ अनन्त पर्याय हो सकती हैं। क्रमभाविता एक गुण की अपेक्षा से है।
पर्याय के मुख्य रूप से दो भेद हैं- व्यंजन पर्याय (द्रव्य के प्रदेशत्व गुण का परिणमन, विशेष कार्य) और अर्थ पर्याय (प्रवेशत्व गुण के अतिरिक्त शेष सम्पूर्ण गुणों का परिणमन) । इनके दो भेद हैं- स्वभाव और विभाव | पर के निमित्त के बिना जो परिणमन होता है, वह स्वभाव पर्याय है और पर के निमित्त से जो होता है, वह विभाव पर्याय है।
गाथा १० - काल का लक्षण वर्तना है। जीव और अजीव सभी द्रव्यों में जो परिणमन होता है उसका उपादान स्वयं वे द्रव्य होते हैं और उनका निमित्त कारण काल को माना है। काल के अपने परिणमन में भी स्वयं काल ही निमित्त है।
काल द्रव्य है, अस्तिकाय नहीं है; चूँकि वह एक समय रूप हैं; प्रदेशों का समूह रूप नहीं है। भगवतीसूत्र (१३/१४) में काल को जीव- अजीव की पर्याय कहा है। काल के समय (अविभाज्य रूप सर्वाधिक सूक्ष्म अंश) अनन्त हैं।
श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार दिन, रात्रि आदि रूप व्यवहार काल मनुष्य क्षेत्र (ढाई द्वीप) प्रमाण है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार काल लोकव्यापी तथा अणुरूप है। रत्नों की राशि के रूप में लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक- एक कालाणु स्थित है।
गाथा ३२-३३–कर्मों के आस्रव को रोकना संवर रूप चारित्र है । कर्मों के पूर्वबद्ध चय को तप से रिक्त करना, क्षय करना निर्जरा रूप चारित्र है। प्रस्तुत अध्ययन में चारित्र की उक्त दोनों व्याख्यायें हैं। एक है - " चयरित्तकरं चारित्तं " - ( गाथा ३३ ) और दूसरी है - "चरित्तेण निगिण्हाई तयेण परिसुज्झइ " ( गाथा ३५) । अन्तिम शुद्धि तप रूप चारित्र से ही होती है।
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