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[357 ] अष्टाविंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
जो जिणदिढे भावे, चउव्विहे सद्दहाइ सयमेव।
एमेव नऽन्नह त्ति य, निसग्गरुई त्ति नायव्वो॥१८॥ जिनेन्द्र भगवान द्वारा देखे गये और उपदेश दिये गये भावों में तथा द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से विशिष्ट पदार्थों के विषय में कि यह ऐसा ही है अन्यथा नहीं है, इस प्रकार की जो स्वतः स्फूर्त श्रद्धा है. उसे निसर्ग रुचि जानना चाहिए॥१८॥
The spontaneous belief in the realities seen and told by the Jinas and in things unique in terms of matter, space, time and mode, that they are such and not otherwise, is known as interest by nature. (18)
एए चेव उ भावे, उवइटे जो परेण सद्दहई।
छउमत्थेण जिणेण व, उवएसरुइ त्ति नायव्वो॥१९॥ २. उपदेश रुचि-जो जिनेन्द्र भगवान अथवा अन्य छद्मस्थों के उपदेश से जीवादि भावों में श्रद्धा करता है, वह उपदेश रुचि जाननी चाहिए ॥ १९ ॥
2. Interest in instruction—The belief in fundamentals including soul inspired by preaching of Jinas or other Chhadmasthas (one who is just short of omniscience due to residual karmic bondage), is known as interest in instructions. (19)
रागो दोसो मोहो, अन्नाणं जस्स अवगयं होइ।
आणाए रोयंतो, सो खलु आणारुई नाम॥२०॥ ३. आज्ञा रुचि-जिसके राग, द्वेष, मोह और अज्ञान नष्ट हो गये हैं, उसकी आज्ञा में रुचि रखना, आज्ञा रुचि है॥ २० ॥
3. Interest in command-To have interest in the command of those whose attachment, aversion, fondness and ignorance have been destroyed is interest in command. (20)
जो सुत्तमहिज्जन्तो, सुएण ओगाहई उ सम्मत्तं ।
अंगेण बाहिरेण व, सो सुत्तरुइ त्ति नायव्वो॥२१॥ ४. सूत्र रुचि-जो. अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य श्रुत का अवगाहन करता हुआ, श्रुत द्वारा सम्यक्त्व का उपार्जन करता है, वह सूत्र रुचि है॥ २१॥
4. Interest in scriptures—The righteousness earned while studying Anga-pravishta (the twelve limbed corpus of Jain canon) and Anga-baahya (other than the Anga canon) scriptures is said to be obtained through interest in scriptures. (21)
एगेण अणेगाई, पयाइं जो पसरई उ सम्मत्तं।
उदए व्व तेल्लबिन्दू, सो बीयरुइ त्ति नायव्वो॥२२॥ ५. बीज रुचि-जिस प्रकार पानी में तेल की बूंद फैल जाती है, उसी प्रकार जो सम्यक्त्व एक पद से अनेक पदों में प्रसरित होता है, वह बीज रुचि है॥ २२॥