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ती सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
प्रथम अध्ययन [8]
On being asked in humble words by a modest disciple the guru should also elaborate the text and the meaning correctly and properly as he has heard and learned (from his guru). (23)
मुसं परिहरे भिक्खू, न य ओहारिणिं वए।
भासा-दोसं परिहरे, मायं च वज्जए सया॥२४॥ भिक्षु मृषा-असत्य भाषा का त्याग कर दे और निश्चयकारी भाषा भी न बोले। भाषा के जो अन्य दोष हैं, उनका भी परित्याग कर दे तथा माया (छल-कपटपूर्ण वचन) का भी त्याग करे॥ २४ ॥
An ascetic should always avoid falsehood as well as definitive language. He should also avoid all other faults of verbal communication as well as deceit (fraudulent language). (24)
न लवेज्ज पुट्ठो सावज्जं, न निरठं न मम्मयं। . .
अप्पणट्ठा परट्ठा वा, उभयस्सन्तरेण वा॥२५॥ भिक्षु किसी के पूछने पर भी अपने लिये, अन्य के लिये अथवा दोनों के लिये या निष्प्रयोजन ही पापकारी (सावद्य) वचन न बोले और न ही मर्मघाती वाणी का उच्चारण करे ॥ २५॥
On being asked by someone, an ascetic should not utter sinful words for his own sake, for the sake of others, for the sake of both or for no purpose at all. He should also not utter hurting or pinching words. (25)
समरेसु अगारेसु, सन्धीसु य महापहे।
एगो एगिथिए सद्धिं, नेव चिट्ठे न संलवे॥२६॥ लुहार की शाला अथवा ऐसे ही अन्य स्थानों में, घरों में घरों की सन्धियों और राजमार्गों पर अकेला साधु अकेली स्त्री के साथ न तो खड़ा रहे और न ही उसके साथ किसी प्रकार का वार्तालाप (बातचीत) ही करे ॥ २६॥
An ascetic should never stand or talk in solitude with an unescorted woman at forlorn places like black-smithy, (isolated spots in) houses, space between two houses and highways. (26)
जं मे बुद्धाणुसासन्ति, सीएण फरुसेण वा।
'मम लाभो' त्ति पेहाए, पयओ तं पडिस्सुणे॥२७॥ "गुरुजन जो मुझे मृदु अथवा कठोर शब्दों से अनुशासित करते हैं, वह मेरे ही लाभ के लिये हैं", ऐसा सोचकर विनीत शिष्य उस अनुशासन अथवा हित-शिक्षा को सावधानी से सुनकर स्वीकार करे॥ २७॥
"The discipline imposed in stern words by the seniors is, indeed, for my benefit alone", with this thought a humble disciple should listen carefully and accept that disciplining or edifying command. (27)
अणुसासणमोवायं, दुक्कडस्स य चोयणं। हियं तं मन्नए पण्णो, वेसं होइ असाहुणो॥२८॥