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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
पूर्व - प्रथम तीर्थंकर के साधु सरल और दुर्बोध्य (ऋजु - जड़) होते हैं तथा पश्चिम (अन्तिम) तीर्थंकर के साधु असरल और दुर्बोध्य ( वक्र- जड़) होते हैं और मध्य के बाईस तीर्थंकरों के साधु सरल और प्राज्ञ (ऋजु-प्राज्ञ) होते हैं। इस कारण धर्म के दो प्रकार किये गये हैं॥ २६ ॥
त्रयोविंश अध्ययन [ 292]
The followers of the first (Tirthankar) were ignorant but simple, those of the last (Tirthankar) are ignorant and perverted and those of the in-between (twenty two Tirthankars) were simple but wise. That is the reason for the duality of doctrine. (26) पुरिमाणं दुव्विसोज्झो उ, चरिमाणं दुरणुपालओ । को मज्झिमाणं तु, सुविसोज्झो सुपालओ ॥ २७ ॥
प्रथम तीर्थंकर के साधुओं द्वारा आचार मर्यादा ( कल्प) शुद्ध रूप में ग्रहण करना (दुव्विसोज्झो) दुष्कर है तथा अन्तिम तीर्थंकर के साधुओं द्वारा उसका निर्मल रूप से पालन करना कठिन है और मध्य के तीर्थंकरों के साधुओं के लिए आचार ( कल्प) का ग्रहण करना और पालन करना सरल है॥ २७ ॥
It was difficult for the ascetic disciples of the first Tirthankar to understand the code of conduct in its pure form, whereas it is difficult for the ascetic followers of the last Tirthankar to practise it in its pristine form. However, for those of the twenty two Tirthankars it was easy both to understand and practise. (27)
साहु गोयम ! पन्ना ते, छिन्नो मे संसओ इमो । अन्नो वि संसओ मज्झं, तं मे कहसु गोयमा ! ॥ २८ ॥
( केशीकुमार श्रमण - ) हे गौतम! तुम्हारी प्रज्ञा श्रेष्ठ है। तुमने मेरा यह संशय मिटा दिया। मेरा एक संशय और है । हे गौतम ! उसके विषय में मुझे कहें, (मेरा सन्देह दूर करें ) ॥ २८ ॥
(Kumar-shraman Keshi - ) Gautam ! You are endowed with excellent wisdom. You have removed my doubt. I have another doubt. Gautam! Please tell me about that also. (28)
अचेलगो य जो धम्मो, जो इमो सन्तरुत्तरो । देसिओ वद्धमाणेण; पासेण य महाजसा ॥ २९ ॥
यह अचेलक धर्म वर्द्धमान द्वारा उपदिष्ट है और वर्ण आदि से युक्त तथा मूल्यवान वस्त्र वाला (संतरुत्तर) धर्म महायशस्वी पार्श्व ने बताया है ॥ २९ ॥
Famous sage Parshvanaath has propagated this religion of costly and colourful garb and great sage Mahavir has propagated this religion of freedom from garb. (29) एगकज्जपवन्नाणं, विसेसे किं नु कारणं ?
लिंगे दुविहे मेहावि ! कहं विप्पच्चओ न ते ? ॥ ३० ॥
एक ही कार्य-लक्ष्य में प्रवृत्त दोनों में इस विशेषता - भिन्नता का कारण क्या है ? हे मेधावी ! इन प्रकार के लिंगों से क्या तुम्हें संशय नहीं होता ? ॥ ३० ॥