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[281] द्वाविंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्रता
पक्खंदे जलियं जोइं, धूमकेउं दुरासयं।
नेच्छन्ति वंतयं भोत्तुं, कुले जाया अगंधणे॥४२॥ अगन्धन कुल में उत्पन्न हुए सर्प धूम की ध्वजा वाली जलती हुई दुष्प्रवेश अग्नि में प्रवेश कर जाते हैं, किन्तु वमन किये हुए अपने विष को पुनः पीना नहीं चाहते॥ ४२ ॥
Serpents of the Agandhan species burn themselves in fire rather then drinking again their vomited venom. (42)
धिरत्थु ते ऽजसोकामी ! जो तं जीवियकारणा।
वन्तं इच्छसि आवेडं, सेयं ते मरणं भवे ॥४३॥ हे अपयश की इच्छा करने वाले! तुझे धिक्कार है कि तू भोगी जीवन के लिए वमित किये हुए भोगों को पुनः भोगना चाहता है। इससे तो तेरा मर जाना ही श्रेयस्कर है॥४३॥
Shame on you, you covetous for infamy! You wish to enjoy the vomited pleasures in order to lead a life of indulgences. It is better for you to die. (43)
अहं च भोयरायस्स, तं च सि अन्धगवण्हिणो।
मा कुले गन्धणा होमो, संजमं निहुओ चर॥४४॥ मैं भोजराज (भोजवृष्णि) की पौत्री हूँ और तू अन्धकवृष्णि का पौत्र है। कुल में गन्धन सर्प के समान मत हो। स्थिर होकर संयम का आचरण कर ॥४४॥
I am the grand daughter of Bhoj-raj (Bhoj-vrishni) and you are the grandson of Andhakvrishni. Do not be like a Gandhana serpent (who sucks back the vomited poison under spell of mantra) in the family. Follow the ascetic-discipline unwaveringly. (44)
जइ तं काहिसि भावं, जा जा दिच्छसि नारिओ।
वायाविद्धो व्व हडो, अट्ठि अप्पा भविस्ससि ॥४५॥ यदि तू जिन-जिन स्त्रियों को देखेगा और उन-उन के प्रति इसी प्रकार से रागभाव करेगा तो वायु से प्रेरित हड़ वनस्पति के समान अस्थिर-आत्मा हो जायेगा॥ ४५ ॥
If you are tempted by every women you see, you will be pliable like a Hada plant (a plant that has no stalk) is in the wind. (45)
गोवालो भण्डवालो वा, जहा तद्दव्वऽणिस्सरो।
एवं अणिस्सरो तं पि, सामण्णस्स भविस्ससि॥४६॥ जिस प्रकार गोपाल और भाण्डपाल उन गायों तथा किराने के सामान के स्वामी नहीं होते, उसी प्रकार तू भी श्रामण्यभाव का स्वामी नहीं हो सकेगा॥ ४६॥
As cowherd and storekeeper are not the owners of cows and groceries, in the same way you will not be able to become the owner of sage-hood. (46)
कोहं माणं निगिण्हित्ता, मायं लोभं च सव्वसो। इन्दियाइं वसे काउं, अप्पाणं उवसंहरे ॥४७॥