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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
विंशति अध्ययन [256]
चिरं पि से मुण्डरुई भवित्ता, अथिरव्वए तव-नियमेहि भट्ठे।
चिरं पि अप्पण किलेसइत्ता, न पारए होइ हु संपराए॥४१॥ जो महाव्रतों के पालन में अस्थिर और तप-नियमों के आचरण से भ्रष्ट है, वह मुण्डित (मुण्डरुचि) (केशलोंच आदि द्वारा) दीर्घकाल तक शरीर को कष्ट देकर भी संसार से पार नहीं हो सकता है॥ ४१ ।।
One who wavers in observing the great vows and transgresses the austerity and code based conduct cannot go across the cycles of rebirth even after recurrent tonsuring and mortifying the body. (41)
___ पोल्ले व मुट्ठी जह से असारे, अयन्तिए कूडकहावणे वा।
राढामणी वेरुलियप्पगासे, अमहग्घए होइ य जाणएसु॥४२॥ जिस प्रकार पोली (खाली) मुट्ठी, अयंत्रित-अप्रमाणित खोटा सिक्का और काँच मणि, यद्यपि वैद्य मणि के समान चमकती है लेकिन जानकारों की दृष्टि में इनका कोई मूल्य नहीं होता (इसी प्रकार चारित्र-गुणों से शून्य मात्र वेशधारी मुण्डित भी निर्मूल्य होता है) ॥ ४२ ॥
He (the aforesaid unrighteous in ascetic garb and tonsured) is empty like a clenched fist, worthless like a counterfeit coin (stamped metal pieces). In the eyes of the discerning wise he is without any value just like a glittering glass bead resembling cat's eye. (42)
कुसीललिंगं इह धारइत्ता, इसिज्झयं जीविय वूहइत्ता।
असंजए संजयलप्पमाणे, विणिघायमागच्छइ से चिरंपि॥४३॥ इस जन्म में जो आचारहीनों का वेश (कुशील लिंग) तथा रजोहरण आदि श्रमण चिन्ह (इसिज्झय) धारण करके जीविका चलाता है तथा असंयत होकर भी अपने आप को संयत कहलाता है। वह दीर्घकाल तक जन्म-मरण की परम्परा को प्राप्त होता है॥ ४३॥
In this life he who subsists by donning heretic garb or by carrying token signs of ascetichood (like ascetic-broom) and although unrestrained, pretends to be restrained ends up in cycles of rebirth for a very long time. (43)
विसं तु पीयं जह कालकूडं, हणाइ सत्थं जह कुग्गहीयं।
एसे व धम्मो विसओववन्नो, हणाइ वेयाल इवाविवन्नो॥४४॥ जिस प्रकार पिया हुआ कालकूट विष, उलटा पकड़ा हुआ शस्त्र और अनियन्त्रित वैताल नाशकारी होते हैं, उसी प्रकार विषय-विकारों से युक्त धर्म भी साधक के लिए विनाशकारी होता है। ४४॥ .
As consumed fatal poison, weapon held inverted and uncontrolled evil spirit (vaital) are devastating; in the same way religion contaminated with sensuality and perversion is devastating for an aspirant. (44)
जे लक्खणं सुविणं पउंजमाणे, निमित्त-कोऊहलसंपगाढे। कुहेडविज्जासवदारजीवी, न गच्छई सरणं तम्मि काले॥ ४५ ॥