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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
जो लक्षणशास्त्र, स्वप्नशास्त्र, निमित्तशास्त्र, कौतुक - इन्द्रजाल आदि असत्य और आश्चर्य उत्पन्न करने वाली विद्या (कुहेड) एवं आस्रवद्वारों में आसक्त होता है तथा इनके द्वारा अपनी जीविका चलाता है, उनके फल भोगते समय कोई भी उसका सहायक अथवा रक्षक नहीं होता ॥ ४५ ॥
[257 ] विंशति अध्ययन
One who is obsessed with and subsists on divining body-marks, signs and dreams; augury, voodoo and magic; and other such deluding and miraculous displays (kuhed), spells and sources of karmic inflow, gets no help or protection from anybody at the time of retribution. (45)
तमंतमेणेव उ से असीले, सया दुही विप्परियासु वेइ । संधावई नरगतिरिक्खजोणिं, मोणं विराहेत्तु असाहुरूवे ॥ ४६ ॥
वह शीलरहित साधु अपने घोर अज्ञानान्धकार के कारण (तमंतमेणेव ) विपरीत दृष्टि वाला हो जाता है तथा असाधु प्रवृत्ति वाला वह साधु मुनिधर्म (मोणं) की विराधना करके, सदा दुःखी होकर नरक तिर्यंचगति में जन्म-मरण करता रहता है ॥ ४६ ॥
That unrighteous ascetic becomes a pervert due to his own dense darkness of ignorance. That ascetic with ignoble tendency, after transgressing the ascetic code, is trapped in the cycles of rebirth in animal and infernal world to suffer miseries forever. (46)
उद्देसियं कीयगडं नियागं, न मुंबई किंचि अणेसणिज्जं । अग्गी विवा सव्वभक्खी भवित्ता, इओ चुओ गच्छइ कट्टु पावं ॥ ४७ ॥
जो औद्देशिक, खरीदा हुआ नित्यपिंड आदि थोड़ा-सा भी अनेषणीय आहार नहीं छोड़ता, अग्नि की भाँति सर्वभक्षी वह साधु पापकर्म करके यहाँ से मरण करके दुर्गति में जाता है॥ ४७ ॥
One who does not at all avoid forbidden alms including that prepared for him (auddeshik), bought for him (kriti-krit) and served after invitation (nityagra), due to his sinful deeds, that fire-like all consuming ascetic is reborn in lower realms after death. (47)
न तं अरी कंठछेत्ता करेइ, जं से करे अप्पणिया दुरप्पा | से नाहि मच्चुमुहं तु पत्ते, पच्छाणुतावेण दयाविहूणो ॥ ४८ ॥
उस साधु की दुष्प्रवृत्तिशील आत्मा जैसा अनर्थ करती है, वैसा तो गला काटने वाला शत्रु भी नहीं करता। दया-संयमविहीन वह साधु मृत्यु के मुख में पहुँचने पर पश्चात्ताप करता हुआ इस तथ्य को जान पाता है ॥ ४८ ॥
A cut-throat enemy does not do him such harm as his own pervert soul does to him. Devoid of compassion and ascetic-discipline he becomes aware of this reality only while repenting in face of death. (48)
निरट्ठिया नग्गरुई उ तस्स, जे उत्तम विवज्जासमेइ । इमे वि से नत्थि परे वि लोए, दुहओ वि से झिज्जइ तत्थ लोए ॥ ४९ ॥