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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
मेरी अपनी आत्मा ही वैतरणी नदी है, आत्मा ही कूट शाल्मली वृक्ष है, कामधेनु है और नन्दनवन है ॥ ३६ ॥
[255] विंशति अध्ययन
It is my own soul that is Vaitarani river, Koot Shalmali tree, Kaamadhenu and Nandanavana (divine things that harm or protect ). ( 36)
अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिय-सुपट्ठिओ ॥ ३७॥
यह आत्मा ही अपने सुख-दुःखों का कर्त्ता है और भोक्ता भी यही है। शुभ प्रवृत्तियों में प्रवृत्त आत्मा ही अपना मित्र है और दृष्प्रवृत्तियों में लीन आत्मा ही अपना शत्रु है ॥
३७ ॥
This soul itself is the doer and non-doer of joy and miseries. When indulging in noble intents the soul is one's friend and when indulging in ignoble intents the soul is one's foe. (37)
इमा हुं अन्ना वि अणाहया निवा !, तमेगचित्तो निहुओ सुणेहिं । नियण्ठधम्मं लहियाण वी जहा, सीयन्ति एगे बहुकायरा नरा ॥ ३८ ॥
नरेश ! एक अन्य प्रकार की भी अनाथता है, उसे एकाग्र और शान्त हृदय से सुनो। बहुत से ऐसे भी कायर पुरुष होते हैं जो निर्ग्रन्थ धर्म को प्राप्त करके भी खिन्न हो जाते हैं - दुःख का अनुभव करते हैं ॥ ३८ ॥
O king! There is another state of being unprotected, listen about that with serene and attentive mind. There are many such coward individuals who remain disturbed even after accepting ascetic conduct and go astray. (38)
जो पव्वइत्ताण महव्वयाई, सम्मं नो फासयई पमाया । निगहप्पा यरसेसु गिद्धे, न मूलओ छिन्दन बन्धणं से ॥ ३९ ॥
जो प्रव्रजित होकर प्रमाद के कारण महाव्रतों का सम्यक् रूप से परिपालन नहीं करता, आत्मा और इन्द्रियों का निग्रह नहीं करता, रसों- स्वादों में आसक्त रहता है वह बन्धनों का मूलोच्छेद नहीं कर सकता है ॥ ३९ ॥
After getting initiated, one who does not properly practise the great vows due to negligence does not control his own soul and senses, remains obsessed with taste buds cannot uproot the karmic bonds. (39)
आउत्तया जस्स न अत्थि काइ, इरियाए भासाए तहेसणाए । आयाण-निक्खेव - दुगुंछणाए, न वीरजायं अणुजाइ मग्गं ॥ ४० ॥
जिस साधक की ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और उच्चार-प्रस्रवण (दुगंछण- जुगुप्सा उत्पन्न करने वाली ) परिष्ठापनिका – इन पाँचों समितियों में यतना ( - आइत्तया) नहीं है, वह उस मार्ग पर नहीं चल सकता है, जिस पर वीर पुरुष चलते हैं ॥ ४० ॥
The aspirant who is not careful in observation of the five circumspections related to movement, speech, alms-seeking, taking and giving and disposing odious excreta, cannot follow the path the brave tread. (40)