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[243] एकोनविंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
विशेष स्पष्टीकरण
गाथा ३ – 'त्रायस्त्रिंश' जाति के देवों को “दोगुन्दग" देव कहते हैं। ये जैन और बौद्ध परम्परा में बड़े ही महत्व के देव माने गये हैं। उन्हें सदा भोगपरायण कहा है।
गाथा ४ - चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त आदि 'मणि' कहलाते हैं और शेष गोमेदक आदि 'रत्न' ।
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गाथा १७ – “किम्पाक" एक विष वृक्ष होता है उसके फल खाने में सुस्वादु होते हैं, किन्तु परिपाक में भयंकर कटु अर्थात् प्राणघातक किंपाक का शब्दार्थ ही है- “किम्" अर्थात् कुत्सित-बुरा, "पाक” अर्थात् विपाक - परिणाम है जिसका ।
गाथा ३६ - सामान्यतया जैन श्रमणों की भिक्षा के लिये गोचर (गोचरी) एवं मधुकरी शब्द का प्रयोग होता है। यहाँ कापोती वृत्ति का उल्लेख है। कबूतर सशंकभाव से बड़ी सतर्कता के साथ एक-एक दाना चुगता है, इसी प्रकार एषणा के दोषों की शंका को ध्यान में रखते हुए भिक्षु भी थोड़ा से थोड़ा आहार अनेक घरों से ग्रहण करता है।
गाथा ४६ – संसाररूपी अटवी के नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव - ये चार अन्त होते हैं, अतः आगमों में संसार को "चाउरंत" कहा गया है।
IMPORTANT NOTES
Verse 3-The gods of Traayastrimsha class are called Dogundaga gods. They have a very important place in both Jain and Buddhist traditions. They are defined as completely indulgence and pleasure oriented.
Verse 4-Some gems and ornamental stones including Chandrakanta and Suryakanta are classified as mani and others including Gomedaka, as ratna.
Verse 17 - Kimpaak is a poisonous tree. Its fruits are very tasteful while eating. But the ultimate effect is bitter, deathly. Kimpaak means - kim = bad + paak = fruition or consequence.
Verse 36 For alms-seeking of Jain ascetics the words commonly in use are gochari (grazing by cow) and madhukari (collection of honey by bees). But here the word Kaapoti vritti (eating habit of a pigeon) is mentioned. Pigeon takes grains one by one carefully with precaution. In the same way an ascetic collects from small quantities from many houses being cautious and careful of faults of alms collection.
Verse 46 Every journey in this wilderness of worldly existence (cycles of rebirth) ends at one of the four places; namely hell, animal world, human world and divine realm. That is the reason in Jain canon (Agams) worldly existence is called chaturant (having four ends ).