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[241] एकोनविंश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
गारवेसु कसाएसु, दण्ड-सल्ल-भएसु य।
नियत्तो हास-सोगाओ, अनियाणो अबन्धणो-॥९२ ॥ गौरवों-गर्वो-अभिमानों, चारों कषायों, तीन प्रकार के दण्ड, तीन तरह के शल्य और सप्त प्रकार के भयों से, हास्य और शोक से निवृत्त, निदान-कामभोगों की इच्छा न करता हुआ, राग-द्वेष के बंधनों से रहित-॥९२॥
(Now he became-) Free of glories (pride and conceit), passions (anger, conceit, deceit and greed), injuries (through mind, speech and body), spiritual-thorns (deceit, desire and unrighteousness), fear (seven kinds), feelings of joy and grief, cravings (nidaan), bondage of attachment and aversion- (92)
अणिस्सिओ इहं लोए, परलोए अणिस्सिओ।
वासीचन्दणकप्पो य, असणे अणसणे तहा-॥१३॥ इस लोक तथा परलोक में भी प्रतिबद्धतारहित-अनासक्त, वसूले से काटने-छीलने अथवा गोशीर्ष चन्दन लगाये जाने पर भी समभाव रखने वाला तथा आहार मिलने अथवा न मिलने पर भी समत्वभाव रखने वाला- ॥ ९३ ॥
(Now he became -) Dissociated from this world (birth) and the next, equanimous in stink (slime) or fragrance (sandal-wood) as also when getting or not getting food- (93)
अप्पसत्थेहिं दारेहिं, सव्वओ पिहियासवे।
अज्झप्पज्झाणजोगेहि, पसत्थ-दमसासणे॥९४॥ अप्रशस्त द्वारों-पापकर्मों के आस्रवों के हेतुओं का सभी प्रकार से निरोध करके मृगापुत्र प्रशस्त संयम, इन्द्रिय दमन और साध्वाचार में, आध्यात्मिक ज्ञानयोग में लीन हो गया॥ ९४॥
After blocking all ignoble doors (causes of inflow of demerit-karmas), Mrigaputra got completely engrossed in exercising lofty restraint, subduing senses, following asceticpraxis and associating with spiritual knowledge (adhyatmic jnana yoga). (94)
एव नाणेण चरणेण, दंसणेण तवेण य।
भावणाहि य सुद्धाहिं, सम्म भावेत्तु अप्पयं- ॥१५॥ इस प्रकार ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप और विशुद्ध भावनाओं से अपनी आत्मा को सम्यक् रूप से भावित करते हुए- ॥ ९५॥
This way rightly enkindling his soul with right knowledge, perception/faith, conduct and austerities as well as sublime sentiments- (95)
बहुयाणि उ वासाणि, सामण्णमणुपालिया।
मासिएण उ भत्तेण, सिद्धिं पत्तो अणुत्तरं ॥९६॥ बहुत वर्षों तक श्रमणधर्म का अनुपालन करते रहे, आयु के अन्त में एक मास का भक्त प्रत्याख्यान करके मृगापुत्र मुनि ने अनुत्तर गति-सिद्ध गति प्राप्त की॥ ९६ ॥