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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
Abandoning manifold interests, fancies and purposeless activities the restrained ascetic follows this knowledge of metaphysics. (30)
अष्टादश अध्ययन [ 214]
पडिक्कमामि पसिणाणं, परमन्तेहिं वा पुणो । अहो उट्ठए अहोरा, इइ विज्जा तवं चरे ॥ ३१॥
शुभाशुभ फल बताने वाले प्रश्नों और गृहस्थों की मंत्रणाओं से पृथक् रहता हूँ। अहो ! रात-दिन धर्माचरण के लिये मुझे तत्पर जानकर तुम भी तप का आचरण करो ॥ ३१ ॥
I remain away from superstitions and augury as well as conspiracies of householders. Hey! Knowing that day or night I am ever indulgent in religious conduct, you too practice austerities. (31)
जं च मे पुच्छसी काले, सम्मं सुद्धेण चेयसा । ताई पाउकरे बुद्धे, तं नाणं जिणसासणे ॥ ३२॥
तुमने जो मुझसे सम्यक् शुद्ध चित्त से काल (आयु) के विषय में प्रश्न किया है, वह सर्वज्ञ ने प्रकट किया है तथा वह जिनशासन में है ॥ ३२ ॥
The question you have asked me about time (age) with pure heart has been answered by the omniscient and that knowledge is available in Jain order. (32)
किरियं च रोयए धीरे, अकिरियं परिवज्जए । दिट्ठीए दिट्ठिसंपन्ने, धम्मं चर सुदुच्चरं ॥ ३३॥
धीर पुरुष क्रिया में रुचि रखता है और अक्रिया का परित्याग करता है । सम्यग्दर्शन से दृष्टि-सम्पन्न होकर अति दुश्चर श्रुत चारित्र धर्म का आचरण करो ॥ ३३ ॥
A person stabilized in wisdom has belief in existence of soul (kriya) and he rejects the heretic view of non-existence of soul (akriya). Being endowed with right perception/ faith practise the difficult-to-follow religious order (of knowledge and conduct). (33) एयं पुण्णपयं सोच्चा, अत्थ-धम्मोवसोहियं ।
भरहो वि भारहं वासं, चेच्चा कामाइ पव्व ॥ ३४ ॥
अर्थ (मोक्ष-प्राप्ति का लक्ष्यभूत उद्देश्य) और धर्म से उपशोभायमान इस पुण्यपद - पवित्र उपदेश वचन को सुनकर भरत चक्रवर्ती सम्पूर्ण भरत क्षेत्र के राज्य और कामभोगों को त्यागकर प्रव्रजित हुए थे ॥ ३४ ॥
Hearing this pious exhortation impregnated with meaning (goal of attaining liberation) and righteousness, emperor Bharat had renounced the empire of the whole Bharat area as well as pleasures and comforts to get initiated in the order. (34)
सगरो वि सागरन्तं, भारहवासं नराहिवो । इस्सरियं केवलं हिच्चा, दयाए परिनिव्वुडे ॥ ३५ ॥
नराधिप सगर चक्रवर्ती सागर पर्यन्त भारतवर्ष के राज्य तथा सम्पूर्ण ऐश्वर्य को त्यागकर दया-संयम की साधना द्वारा परिनिर्वृत्त-मुक्त हुए ॥ ३५ ॥