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[213] अष्टादश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र An
Men who commit sins go to hell and those who observe best religious conduct attain divine rebirth. (25)
मायावुइयमेयं तु, मुसाभासा निरत्थिया।
संजममाणो वि अहं, वसामि इरियामि च॥२६॥ एकान्तवादियों का कथन कपट से भरा है, मिथ्या है, निरर्थक है। मैं इन असत्य प्ररूपणाओं से निवृत्त और बचकर रहता हूँ॥ २६॥
The doctrine of absolutists is full of deceit, false and meaningless. I live and move about free of and away from these false doctrines. (26)
सव्वे ते विइया मज्झं, मिच्छादिट्ठी अणारिया।
विज्जमाणे परे लोए, सम्मं जाणामि अप्पगं॥२७॥ मिथ्यादृष्टि और अनार्यों को मैंने जान लिया है। परलोक का अस्तित्व होने से मैं अपनी और पराई आत्मा को सम्यक् प्रकार से जानता हूँ॥ २७॥
I have understood these unrighteous and ignoble ones. I know that there is existence of next life and I also know the soul (my own and those of others). (27) - अहमासी महापाणे, जुइमं वरिससओवमे।
जा सा पाली महापाली, दिव्वा वरिससओवमा॥२८॥ मैं पिछले जन्म में पाँचवें देवलोक के महाप्राण विमान में वर्ष शतोपम आयु वाला द्युतिमान देव था। जिस प्रकार यहाँ मानव-जीवन में सौ वर्ष की आयु पूर्ण मानी जाती है उसी प्रकार देवलोक में पल्योपम और सागरोपम की आयु पूर्ण मानी जाती है। ऐसी ही पूर्ण आयु वहाँ मेरी भी थी॥ २८॥
In my previous birth, I was an opulent god in the Mahapraana celestial vehicle of the fifth divine realm having a life-span of Shatopam years. As in this human world a life-span of one hundred years is taken to be fuli life, in the same way the life-span of Palyopam and Sagaropam (units of metaphoric time scale) is taken to be full life. Such was my life-span too. (28)
से चुए बम्भलोगाओ, माणुस्सं भवमागए।
अप्पणो य परेसिं च, आउं जाणे जहा तहा॥२९॥ मैं ब्रह्मलोक से अपनी आयु पूर्ण होने पर इस मनुष्यलोक में आया हूँ। जिस प्रकार मैं अपनी आयु को जानता हूँ उसी प्रकार अन्यों की आयु को भी जानता हूँ॥ २९ ॥
I have come to this land of humans after completing my life-span in Brahmalok. As I know my own life-span, so do I also know the life-spans of others. (29)
नाणारुइं च छन्दं च, परिवज्जेज्ज संजए।
अणट्ठा जे य सव्वत्था, इइ विज्जामणुसंचरे॥३०॥ अनेक प्रकार की रुचि, मन:कल्पित अभिप्राय और प्रयोजनशून्य व्यापारों का परित्याग करके संयतात्मा मुनि इस तत्त्वज्ञान रूपी विद्या का अनुसरण करता है॥ ३०॥