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तर सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
सप्तदश अध्ययन [204]
सन्नाइपिण्डं जेमेइ, नेच्छई सामुदाणियं।
गिहिनिसेज्जं च वाहेइ, पावसमणे त्ति वुच्चई ॥१९॥ जो अपने ज्ञाति जनों-पूर्व परिचितों से आहार प्राप्त करना चाहता है, सामुदानिक-अनेक घरों से भिक्षा नहीं लेना चाहता तथा गृहस्थ की शय्या, आसन आदि पर बैठ जाता है, वह पापश्रमण कहा जाता है॥१९॥
One who wishes to get alms from his relatives or acquaintances from the past, who does not want to collect alms from numerous families and who sits on the seats, beds and the like of a householder, is called a sinful ascetic. (19)
एयारिसे पंचकुसीलसंवुडे, रूवंधरे मुणिपवराण हेट्ठिमे।
अयंसि लोए विसमेव गरहिए, न से इहं नेव परत्थ लोए॥२०॥ जो इस प्रकार आचरण करता है, वह पाँच प्रकार के कुशील साधुओं के समान असंवृत्त है। सिर्फ मुनि-वेष का ही धारक है, श्रेष्ठ मुनियों में निकृष्ट है। वह इस लोक में विष की तरह निन्दनीय होता है। अतः वह न इस लोक का रहता है और न ही परलोक का रहता है॥ २०॥ . .
He who behaves as aforesaid is unrestrained like five types of misbehaving (kushila) ascetics (osanno or lover of delicacies, paasattho or fallen, ahaacchanda or undisciplined, kushilo or with bad character and aasakt or having obsessions-Artha Dipika). He is simply dressed like an ascetic but worst among worthy ascetics. In this world he is as despicable as poison. Therefore, for him both worlds, this world and the one beyond, are spoiled. (20)
जे वज्जए एए सया उ दोसे, से सुव्वए होइ मुणीण मज्झे। . . अयंसि लोए अमयं व पूइए, आराहए लोगमिणं तहावरं ॥२१॥
-त्ति बेमि। जो इन सभी दोषों का सदा वर्जन करता है, वह मुनियों के मध्य में सुव्रत होता है तथा इस लोक में अमृत के समान पूजा जाता है और इस लोक तथा परलोक-दोनों लोकों का आराधक होता है॥२१॥
-ऐसा मैं कहता हूँ।
But one who avoids all these faults becomes sincere observer of right vows among
rshipped like nectar in this world and becomes an accomplished aspirant for both, this world and the one beyond. (21)
-So I say.