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[169 ] चतुर्दश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
पुरोहियं तं ससुयं सदारं, सोच्चाऽभिनिक्खम्म पहाय भोए।
कुडुंबसारं विउलुत्तमं तं, रायं अभिक्खं समवाय देवी-॥३७॥ पुत्रों और पत्नी के साथ पुरोहित ने भोगों को त्यागकर गृहत्याग किया है, यह सुनकर उस परिवार की विपुल और उत्तम धन-सम्पत्ति की इच्छा रखने वाले राजा इषुकार से उसकी रानी कमलावती ने कहा-॥३७॥
Hearing that priest Bhrigu has renounced the world with sons and wife, queen Kamalavati said to her husband king Ishukaar, who wanted to confiscate enormous wealth belonging to that family-(37)
वन्तासी पुरिसो रायं !, न सो होइ पसंसिओ।
माहणेण परिच्चत्तं, धणं आदाउमिच्छसि ॥ ३८॥ (रानी कमलावती-) हे राजन् ! ब्राह्मण भृगु पुरोहित द्वारा परित्यक्त धन को आप लेना चाहते हो किन्तु वमन किये हुये पदार्थ को खाने वाला पुरुष प्रशंसनीय नहीं होता ॥ ३८॥
(Queen Kamalavati-) My lord! You want to take the wealth left by the Brahmin (priest Bhrigu) but a person who consumes vomited filth is never praised. (38)
सव्वं जगं जइ तुहं, सव्वं वावि धणं भवे।
सव्वं पिते अपज्जत्तं, नेव ताणाय तं तव॥३९॥ यदि सारा जगत् और संसार का सारा धन भी आपको प्राप्त हो जाये तो वह सब भी आपके लिये अपर्याप्त ही होगा; और वह धन भी आपकी रक्षा नहीं कर सकेगा॥ ३९ ॥
Even if you get whole world and all its wealth, that too would be insufficient for you. And even all that wealth will fail to protect you. (39)
मरिहिसि रायं ! जया तया वा, मणोरमे कामगुणे पहाय।
एक्को हु धम्मो नरदेव ! ताणं, न विज्जई अन्नमिहेह किंचि॥ ४०॥ राजन् ! जब आप इन मनोज्ञ कामभोगों को छोड़कर मरोगे तब एक मात्र धर्म ही आपका रक्षक होगा। इसलिए हे नरेन्द्र ! इस संसार में धर्म के अतिरिक्त इस प्राणी का कोई भी रक्षक नहीं है॥ ४०॥
O King! Leaving behind all these enchanting pleasures and comforts, when you expire, religion will be your sole protector. Thus, O King! Other than religion there is no saviour of a living being in this world. (40)
नाहं रमे पक्खिणी पंजरे वा, संताणछिन्ना चरिस्सामि मोणं।
अकिंचणा उज्जुकडा निरामिसा, परिग्गहारंभनियत्तदोसा॥४१॥ जिस प्रकार पिंजड़े में बन्द हुई पक्षिणी सुख का अनुभव नहीं करती, वैसे ही मैं भी नहीं करती। अतः मैं भी पारिवारिक स्नेह सम्बन्धों को तोड़कर, अकिंचन, सरल, शब्द आदि विषय-भोगों में अनासक्त, परिग्रह और हिंसा के दोषों से निवृत्त होकर मुनिधर्म का आचरण करूँगी॥४१॥