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[167] चतुर्दश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
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पिताजी ! हम आज ही राग को त्यागकर श्रद्धा सहित उस मुनिधर्म को ग्रहण करेंगे, जिसे ग्रहण करने के पश्चात् पुनः संसार में नहीं आना पड़ता। रही भोगों की बात, वे अनन्त बार भोगे जा चुके हैं, अतः कोई भी भोग अभुक्त नहीं है॥ २८॥
Father ! This day only we will abandon attachment and with all faith accept ascetic religion. Accepting which, one does not have to return to this world (the cycles of rebirth). As regards mundane pleasures, they have already been experienced infinite times, therefore no pleasure remains inexperienced. (28)
पहीणपुत्तस्स हु नत्थि वासो, वासिट्ठि ! भिक्खायरियाइ कालो।
साहाहि रुक्खो लहए समाहिं, छिन्नाहि साहाहि तमेव खाणुं॥२९॥ (पुरोहित-) हे वाशिष्ठि (पुरोहित की पत्नी). ! पुत्रों के बिना अब मैं इस घर में नहीं रह सकता। मेरा भिक्षाचर्या का समय आ गया है। वृक्ष शाखाओं से शोभित होता है और शाखाएँ कट जाने पर दूंठ हो जाता है॥ २९ ॥ ' (Priest-) O Vaashishthi (priest's wife)! I cannot live in this home now without sons. The time has come when I too should become an alms-seeker (ascetic). A tree is beautiful due to its branches and when branches are cut it turns into a stump. (29)
पंखाविहूणो व्व जहेह पक्खी, भिच्चा विहूणो ब्व रणे नरिन्दो।
विवन्नसारो वणिओ व्व पोए, पहीणपुत्तो मि तहा अहं पि॥३०॥ इस संसार में जैसे पंखों के बिना पक्षी, सैनिकों के बिना राजा और नौका पर धनहीन वणिक् असहाय होता है। पुत्रों के बिना ऐसी ही दशा मेरी भी है॥ ३०॥
In this world a bird without wings, a king without warriors, a boat-faring merchant without money are helpless. My condition is same without sons. (30)
सुसंभिया कामगुणा इमे ते, संपिण्डिया अग्गरसप्पभूया।
भुंजामु ता कामगुणे पगामं, पच्छा गमिस्सामु पहाणमग्गं॥३१॥ (पुरोहित पत्नी-) हे स्वामी! सुसंस्कृत तथा सुगृहीत कामभोगरूप प्रचुर विषय-रस जो हमें प्राप्त हैं। उनको इच्छानुरूप भोग लें। बाद में प्रव्रज्यारूप प्रधान मोक्षमार्ग पर चलेंगे॥ ३१ ॥
(Priest's wife-) My lord ! In order to gratify our sensual needs we have excellent and fairly acquired means of pleasures and comforts in plenty. We must enjoy them fully and then we will take the path of liberation by getting initiated. (31)
भुत्ता रसा भोइ ! जहाइ णे वओ, न जीवियट्ठा पजहामि भोए।
लाभं अलाभं च सुहं च दुक्खं, संचिक्खमाणो चरिस्सामि मोणं॥३२॥ (पुरोहित-) हे भगवती! हम विषय-रसों को बहुत भोग चुके। युवावस्था भी अब हमें छोड़ रही है। मैं स्वर्गीय जीवन-प्राप्ति के लिये इन भोगों का त्याग नहीं कर रहा हूँ अपितु लाभ-अलाभ, सुख-दुःख में समभाव से मुनि धर्म-मोण का पालन करूँगा॥ ३२॥