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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
चक्रवर्ती के आधे राज्य का लोभ बहुत बड़ा होता है । यद्यपि इस श्लोकार्थ के रहस्य का ज्ञान किसी को नहीं था, अतः कोई पादपूर्ति तो न कर सका; किन्तु यह पंक्ति साक्षर निरक्षर, उच्च-नीच, श्रेष्ठी श्रमिक सभी की जुबान पर चढ़ गई थी, सभी इसे यत्र-तत्र गुनगुनाते रहते थे ।
[143 ] त्रयोदश अध्ययन
चित्र मुनि ग्रामानुग्राम विचरण करते हुये एक बार कांपिल्यपुर में आये और नगर के बाहर उद्यान में ठहर गये। वहाँ खेत पर अरघट चलाने वाला इसी पंक्ति को गुनगुना रहा था। मुनि ने पंक्ति सुनी और तुरन्त पाद-पूर्ति कर दी -
एषा नौ षष्ठिका जातिः, अन्योन्याभ्यां वियुक्तयोः ।
अरघट चालक ने इस पंक्ति को रटकर कंठस्थ किया और चक्रवर्ती की राजसभा में जाकर वह पंक्ति ज्यों की त्यों सुना दी।
चक्रवर्ती ने पूछा - "क्या यह पाद - पूर्ति तुमने की है ?"
अरघट चालक ने बताया - "महाराज ! मैं इतना विद्वान् कहाँ हूँ। उद्यान में एक मुनि आज ही आये हैं, उन्होंने ही इस पंक्ति की रचना की है।"
सच्चाई जानकर चक्रवर्ती स्वयं उद्यान में आया । अपने पूर्व जन्मों के भाई मुनि से मिला, उनकी वन्दना की और फिर वार्त्तालाप करने लगा ।
उनका वार्त्तालाप मूल अध्ययन में वर्णित है ही ।
पूर्व जन्मों के स्नेह के कारण चित्र मुनि ने ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती को संयम ग्रहण करने की बहुत प्रेरणा दी। यहाँ तक कहा कि यदि तु संयम का पालन नहीं कर सकता तो कम से कम आर्यकर्म तो कर जिससे अगले जन्म में महर्द्धिक देव बन सके।
लेकिन ब्रह्मदत्त पर कोई प्रभाव न पड़ा। उसने अंत में कह दिया- “मेरी दशा दलदल में फँसे उस हाथी जैसी है जो तट को देखता तो है किन्तु वहाँ पहुँच नहीं सकता।" आखिर चित्र मुनि वहाँ से यह कहकर चले जाते हैं कि "राजन् ! मैंने तुम्हें समझाने में व्यर्थ ही समय नष्ट किया ।"
चित्र मुनि ने उत्कृष्ट साधना की और अनुत्तर सिद्ध पद प्राप्त किया। इसके विपरीत कामभोग में फँसा ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती लोक के निकृष्टतम स्थान सातवीं नरक में पहुँचा ।
नाम आदि के परिवर्तनों के साथ यही प्रसंग बौद्ध ग्रन्थों में भी प्राप्त होता है।
इस अध्ययन की प्रमुख विशेषता है- निदान ( कामभोगों की तीव्र इच्छा) की विवशता । कामभोग ही आत्मा के लिये सबसे बड़े बंधन हैं। इनकी आसक्ति के कारण ही जीव दुर्गति में जाकर दुःख भोगता है।
इसके विपरीत भोगेच्छाओं से उपरत रहने वाला व्यक्ति, चाहे वह सांसारिक दृष्टि से अभावग्रस्त ही क्यों न हो, सुखी रहता है और अकिंचन श्रमण तो सर्वश्रेष्ठ आत्मिक सुख की उपलब्धि कर लेते हैं। उन्हें शाश्वत, अव्याबाध मुक्ति-सुख प्राप्त हो जाता है।
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इस अध्ययन में इच्छाओं की दासता से दुःख और इच्छाओं के स्वामी बनने से सुख प्राप्ति का स्वर प्रभावशाली ढंग से प्रतिष्ठापित हुआ है।
प्रस्तुत अध्ययन में ३५ गाथाएँ हैं।