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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
द्वादश अध्ययन [136]
सक्खं खु दीसइ तवोविसेसो, न दीसई जाइविसेस कोई।
सोवागपुत्ते हरिएस साहू, जस्सेरिस्सा इड्ढि महाणुभागा॥३७॥ प्रत्यक्षतः तप की ही विशेषता-महिमा है, जाति की कोई विशेषता नहीं दिखाई देती। जिसकी ऐसी महान् ऋद्धि है, वह हरिकेशबल साधु चाण्डाल-पुत्र है॥ ३७॥ .
In fact it makes clear that the greatness lies in austerities; there is no importance of caste. Ascetic Harikesh-bala who was so exalted was son of a Chandaal (a low caste untouchable). (37)
किं माहणा! जोइसमारभन्ता, उदएण सोहिं बहिया विमग्गहा?
जं मग्गहा बाहिरियं विसोहिं, न तं सुदिह्र कुसला वयन्ति ॥ ३८॥ (मुनि)-हे ब्राह्मणो! अग्नि का समारम्भ-यज्ञ आदि करके क्या तुम बाहर से जल से शुद्धि करना चाहते हो? जो बाह्य शुद्धि करना चाहते हैं, उन्हें कुशल पुरुष सुदृष्टिवान् नहीं कहते ॥ ३८॥
(The ascetic) Brahmins! Why after indulging in the violence of fire-sacrifice (yajna) do you wish to do the external cleansing (by water)? Those who seek external purity are said to be reft of the right perspective by the accomplished. (38)
कुसं च जूवं तणकट्ठमग्गिं, सायं च पायं उदगं फुसन्ता?
पाणाइ भूयाइ विहेडयन्ता, भुज्जो वि मन्दा ! पगरेह पावं॥३९॥ कुश, यूप-यज्ञस्तम्भ, तृण, काष्ट तथा अग्नि का प्रयोग और प्रात:-सन्ध्या जल का स्पर्शइस तरह तुम मन्द-बुद्धि लोग प्राणियों और जीवों का विनाश करके पापकर्मों का संचय कर रहे हो॥ ३९॥
By using grass, sacrificial poles, straw, wood (in the ritual) and touching (for bath and washing) water every morning and evening, you dim-witted people destroy living beings (pranis) and organisms (bhoots). Thereby you accumulate demeritorious karmas. (39)
कहं चरे? भिक्खु! वयं जयामो?, पावाइ कम्माइ पणुल्लयामो?
अक्खाहि णे संजय ! जक्खपूइया !, कहं सुइठं कुसला वयन्ति?॥४०॥ (रुद्रदेव)-हे साधु ! हम किस प्रकार प्रवृत्ति करें, यज्ञ करें? जिससे पापकर्मों से दूर रहें। हे यक्षार्चित संयत! हमें बताएँ कि तत्त्वज्ञानी पुरुष किस प्रकार का यज्ञ श्रेष्ठ बताते हैं ॥ ४०॥
(Rudradeva-) O ascetic! In what should we indulge (what ritual offering should we make) so that we remain free of demerit-karmas ? O Yaksha-adored ascetic! Please tell us, what type of offerings enlightened seers declare as best. (40)
छज्जीवकाए असमारभन्ता, मोसं अदत्तं च असेवमाणा। परिग्गहं इथिओ माण-मायं, एवं परिन्नाय चरन्ति दन्ता॥४१॥