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तर सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
द्वादश अध्ययन [134]
यदि तुम लोग अपना जीवन तथा धन सुरक्षित चाहते हो तो सिर झुकाकर सभी इनकी शरण ग्रहण करो। ये मुनि यदि क्रोधित हो गये तो सम्पूर्ण संसार को भस्म कर सकते हैं ॥ २८ ॥
If you want your life and wealth safe then submit to him with bowed heads. If this ascetic becomes furious he can burn the whole world to ashes. (28)
अवहेडिय पिट्ठसउत्तमंगे, पसारियाबाहु अकम्मचेठे।
निब्भेरियच्छे रुहिरं वमन्ते, उड्ढे मुहे निग्गय-जीह-नेत्ते॥२९॥ मुनि हरिकेशबल को पीटने वाले छात्रों के सिर पीठ की ओर झुक गये थे। उनकी बाहुएँ फैल गई थीं और वे निश्चेष्ट हो गये थे तथा उनकी आँखें खुली रह गई थीं। उनके मुखों से रक्त निकलने लगा था, मुँह ऊपर को हो गये थे और जिह्वाएँ बाहर की ओर निकल आई थीं ॥ २९॥
The students, who were beating ascetic Harikesh-bala, had their heads bent backwards and arms spread wide. They were lying senseless with their eyes wide open. They were vomiting blood with upturned mouth and tongues protruding. (29)
ते पासिया खण्डिय कट्ठभूए, विमणो विसण्णो अह माहणो सो।
इसिं पसाएइ सभारियाओ, हीलं च निन्दं च खमाह भन्ते ॥३०॥ छात्रों को कष्ट के समान निश्चेष्ट देखकर वह विप्र रुद्रदेव उदास और भयभीत हो गया तथा अपनी पत्नी भद्रा सहित मुनि को प्रसन्न करने लगा, कहने लगा-हे भगवन् ! हमने जो आपकी निन्दा और अवहेलना की है, हमारे इस अपराध की क्षमा प्रदान करें॥३०॥
Seeing his students like lifeless logs, Brahmin Rudradeva became sad and fearful. " He and his wife Bhadraa began appeasing the ascetic. He submitted-O Revered one! We have abused and insulted you. Please forgive us for this offence. (30) ।
बालेहिं मूढेहिं अयाणएहिं, जं हीलिया तस्स खमाह. भन्ते!
महप्पसाया इसिणो हवन्ति, न हु मुणी कोवपरा हवन्ति ॥३१॥ हे भगवन् ! ऋषिजन तो महान् प्रसन्नचित्त होते हैं, वे किसी पर क्रोध नहीं करते। आप भी इन मूर्ख अज्ञानी बालकों को इनके द्वारा की गई आपकी अवहेलना को क्षमा करें॥ ३१॥
O Venerable! Sages always have very joyous disposition; they are never angry with anyone. Kindly forgive these foolish ignorant boys for their negligent behaviour towards you. (31)
पुव्विं च इण्हिं च अणागयं च, मणप्पदोसो न मे अस्थि कोइ।
जक्खा हु वेयावडियं करेन्ति, तम्हा हु एए निहया कुमारा॥३२॥ (मुनि हरिकेशबल)-हे सौम्य! मेरे हृदय में तुम्हारे प्रति किसी प्रकार का द्वेष न पहले कभी था, न अब है और न भविष्य में ही कभी होगा। मेरी सेवा में जो यक्ष रहते हैं, उन्होंने ही कुमारों की ऐसी दशा की है॥ ३२॥