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[129] द्वादश अध्ययन
सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र in
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जाईमयपडिथद्ध, हिंसगा अजिइन्दिया।
अबम्भचारिणो बाला, इमं वयणमब्बवी-॥५॥ जातिमद के अंहकार से ग्रसित, हिंसक, अजितेन्द्रिय, अब्रह्मचारी और अज्ञानी ब्राह्मण इस प्रकार के वचन कहने लगे-॥५॥
Possessed by arrogance of their caste the ignorant Brahmins, maligned with violence, unbridled senses and non-celibacy, started uttering as follows-(5)
कयरे आगच्छइ दित्तरूवे, काले विगराले फोक्कनासे।
ओमचेलए पंसुपिसायभूए, संकरदूसं परिहरिय कण्ठे?॥६॥ दैत्य जैसे बीभत्स रूप वाला, काला-कलूटा, विकराल, मोटी और बेडौल नाक वाला, अल्प और जीर्ण वस्त्र वाला, पिशाच जैसा गले में श्मशानी फ़टा चिथड़ा धारण किये हुये यह कौन आ रहा है? ॥६॥
With demon-like disgusting disposition, dark complexion, dreadful appearance, broad and misshaped nose, scanty and tattered dress and carrying filthy rags of the dead around his neck, who is this coming here? (6) . . कयरे तुम इय अदंसणिज्जे, काए व आसा इहमागओ सि।
ओमचेलगा पंसुपिसायभूया, गच्छ क्खलाहि किमिह ठिओ सि?॥७॥ अदर्शनीय रूप वाले तुम कौन हो? किस आशा से यहाँ आये हो? अरे जीर्णवस्त्रधारी, पिशाच-जैसे दिखाई देने वाले, तुम यहाँ क्यों खड़े हो? हटो, यहाँ से चले जाओ॥७॥ ...
Who are you, abominable man? What expectation brings you here? Hey! Devilish looking man in tattered clothes, why are you standing here? Move ! Go away from here. (7)
जक्खो तहिं तिन्दुयरुक्खवासी, अणुकम्पओ तस्स महामुणिस्स। . पच्छायइत्ता नियगं सरीरं, इमाई वयणाइमुदाहरित्था-॥८॥ उस समय तिन्दुक वृक्षवासी यक्ष जो मुनि के प्रति अनुकम्पाभावी (सेवाभावी) था, उसने अपने शरीर को छिपाकर, मुनि के शरीर में प्रविष्ट होकर इस प्रकार के वचन कहे-॥ ८॥
At that moment the Yaksha residing on Tinduka tree, with feelings of compassion (devotion) for the ascetic, concealed his own body, entered the body of the ascetic and said-(8)
समणो अहं संजओ बम्भयारी, विरओ धणपयणपरिग्गहाओ।
परप्पवित्तस्स उ भिक्खकाले, अन्नस्स अट्ठा इहमागओ मि॥९॥ मैं श्रमण हूँ, संयमी हूँ, ब्रह्मचारी हूँ, धन-पचन (भोजन पकाने), परिग्रह से विरत हूँ। मैं तो भिक्षा के समय, दूसरों के लिये बनाए गये आहार के लिये तुम्हारे यज्ञ-मंडल में आया हूँ॥९॥
I am a shraman (Jain ascetic), who is restrained, celibate, free of any possessions and the need of cooking food. I have come at appropriate time (post meal-time) to your yajna enclosure to seek food that has been cooked for others (not for me). (9)