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on सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
नवम अध्ययन [98]
तो वन्दिऊण पाए, चक्कंकुसलक्खणे मुणिवरस्स।
आगासेणुप्पइओ, ललियचवलकुंडलतिरीडी॥६०॥ तत्पश्चात् नमि मुनिराज के चक्र और अंकुश के लक्षणों से युक्त पाद-पद्मों की वन्दना करके ललित तथा चपल कुण्डल और मुकुट धारण किये हुये देवराज शक्रेन्द्र आकाश में ऊपर चला गया ॥६०॥
After that, bowing down at sage Nami's lotus-feet having marks of wheel and goad (hook), the king of gods, adorned with dangling earrings and crown, rose high in the sky. (60)
नमी नमेइ अप्पाणं, सक्खं सक्केण चोइओ।
चइऊण गेहं वइदेही, सामण्णे पज्जुवट्ठिओ॥६१॥ राजर्षि नमि ने अपनी आत्मा को आत्म-भावों में विनत किया, साक्षात् इन्द्र द्वारा प्रेरित किये जाने पर भी धर्म से विचलित नहीं हुए, गृह तथा विदेह देश की राज्यलक्ष्मी को त्याग कर श्रामण्य भाव में स्थिर रहे॥ ६१॥
Sage Nami submerged himself into his soul. In spite of being dissuaded by Shakrendra himself he did not waver from his duty (ascetic code). Renouncing his home and the kingdom of Videh, he remained steadfast in his ascetic state. (61)
एवं करेन्ति संबुद्धा, पंडिया पवियक्खणा। विणियदृन्ति भोगेसु, जहा से नमी रायरिसी॥६२॥
-त्ति बेमि। संबुद्ध, पण्डित, प्रविचक्षण साधक ऐसा ही आचरण करते हैं; नमि राजर्षि के समान कामभोगों से निवृत्त होकर आत्म-साधना में निरत होते हैं। ६२ ॥
-ऐसा मैं कहता हूँ। The enlightened, scholarly and proficient aspirants follow the same conduct; like sage Nami they renounce mundane pleasures and comforts and get engrossed in spiritual practice. (62)
-So I say.