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सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
नवम अध्ययन [ 96]
The whole earth, with its crops of rice, barley and other serials along with cattle and gold all combined, cannot satisfy the ambition of even a single man. Knowing this, one should practice austerities. (49)
एयमट्ठ निसामित्ता, हेऊकारण चोइओ । ओ नमिं रायरिसिं, देविन्दो इणमब्बवी - ॥ ५० ॥
नमि राजर्षि के इस कथन को सुन, हेतु - कारण से प्रेरित देवेन्द्र ने उनसे कहा- ॥ ५० ॥ Hearing sage Nami's answer, the king of gods, on the basis of his reason and logic, spoke thus to the sage- (50)
'अच्छेरगमब्भुदए, भोए चयसि
पत्थिवा! असते कामे पत्थेसि, संकप्पेण विहन्नसि ' ॥ ५१ ॥
हे पृथ्वीनाथ! आश्चर्य है कि अभ्युदय काल में प्रत्यक्ष प्राप्त भोगों का तो त्याग कर रहे हो और अप्राप्त भोगों की इच्छा कर रहे हो; तुम अपने संकल्प से ही प्रताड़ित हो रहे हो ॥ ५१ ॥
O Lord of the land! It is surprising that during the prime of your life you are renouncing the available pleasures and comforts and seeking those that are not available or non-existent; you are, in fact, suffering due to your own resolve. (51)
एयमंट्ठ निसामित्ता, हेऊ कारण- चोइओ । तओ नमी रायरिसी, देविन्दं इणमब्बवी - ॥५२॥
देवेन्द्र के इस कथन को सुन और हेतु कारण से प्रेरित हो नमि राजर्षि इन्द्र से कहते हैं- ॥ ५२ ॥ Hearing these words from Indra and stirred by logic and reason sage Nami answered to Indra thus - (52)
'सल्लं कामा विसं कामा, कामा आसीविसोवमा ।
कामे पत्थेमाणा, अकामा जन्ति दोग्गई ॥ ५३॥
जगत् के कामभोग शल्य हैं, विष हैं और आशीविष सर्प के समान हैं। जो लोग कामभोगों की इच्छा तो रखते हैं लेकिन किसी कारणवश भोग नहीं पाते, वे भी दुर्गति में जाते हैं ॥ ५३ ॥
The mundane and carnal pleasures are thorns, poison and are like a snake with venomous fangs. Even those who hanker for these but are unable to enjoy for some reason end up in misery (lower rebirth). (53)
अहे वयइ कोहेणं, माणेणं अहमा गई । माया गईपडिग्घाओ, लोभाओ दुहओ भयं ' ॥ ५४॥
क्रोध से नीच गति और मान से अधम गति की प्राप्ति होती है तथा छल-कपट - माया सुगति को रोक देती है और लोभ से इस लोक तथा परलोक दोनों में भय होता है ॥ ५४ ॥
Anger leads to mean existence, conceit leads to meanest existence, deceit obstructs the progress of noble existence and greed begets fear in both the worlds (this life and the next). (54)