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ता, सचित्र उत्तराध्ययन सूत्र
सप्तम अध्ययन [62]
सप्तम अध्ययन : उरभ्रीय
पूर्वालोक
प्रस्तुत अध्ययन का नाम उरभ्रीय है। यह नामकरण उरभ्र के दृष्टान्त के आधार पर हुआ है। समवायांग तथा उत्तराध्ययन नियुक्ति में इसका नाम 'उरब्भिज्जं' है किन्तु अनुयोगद्वारसूत्र में इसे 'एलइज्जं' कहा गया है। प्रस्तुत अध्ययन की प्रथम गाथा में भी 'एलयं' शब्द का प्रयोग हुआ है। 'उरभ्र' और 'एलक'-दोनों ही शब्द पर्यायवाची हैं। इनका अर्थ है-भेड़ का बच्चा-मेमना। अतः दोनों ही नाम एक ही भाव को स्पष्ट करते हैं।
श्रमण संस्कृति का मूल स्वर त्याग और विरक्ति है। विरक्ति कामभोगों से, इन्द्रिय-विषयों से। इन्द्रिय और इनसे प्राप्त होने वाला सुख स्थायी नहीं है, क्षणिक है। इस क्षणिकता को जानते हुये भी. साधारण मानव अल्पकालिक सुखभोग के लोभ को त्याग नहीं पाता। ,
लेकिन इस अध्ययन द्वारा साधक को सावधान किया गया है कि तुच्छ एवं क्षणिक सुखों के प्रलोभन में वह अपनी बड़ी हानि न कर ले। इन्द्रियासक्ति के दुष्परिणामों तथा कटुफलों को बताने के लिये इस अध्ययन में ५ व्यावहारिक दृष्टान्त दिये गये हैं। दृष्टान्तों की मुख्यता के कारण यह अध्ययन दृष्टान्त-प्रधान हो गया है।
१. प्रथम दृष्टान्त-कामभोग का कटुफल किसी धनी पुरुष के पास एक गाय और उसका बछड़ा था तथा उसने एक मेमना (भेड़ का बच्चा) भी पाल रखा था। वह गाय-बछड़े को सूखी घास देता और मेमने को खूब अच्छा पौष्टिक-स्वादिष्ट भोजन देता, स्नान कराता, शरीर पर प्यार से हाथ फिराता। कुछ ही दिनों में मेमना मोटा-ताजा हो गया। उसके शरीर पर माँस चढ़ गया, वह तुन्दिल हो गया।
बछड़ा मालिक के इस भेदपूर्ण व्यवहार को देखता। एक दिन उसने माँ (गाय) से उदास-निराश स्वर में शिकायत की-"माँ! देखो, मालिक मेमने को कितना प्यार करता है? कैसा पौष्टिक भोजन देता है? कुछ ही दिनों में वह कैसा मोटा-ताजा हो गया है? और हमें सूखी घास देता है; जबकि तुम तो मालिक को दूध भी देती हो फिर भी वह हमारे साथ ऐसा व्यवहार क्यों करता है?" ___अनुभवी गाय ने प्यार से बछड़े को दुलराते हुये कहा-"वत्स! यह मेमना आतुर-लक्षण है। इसकी मृत्यु निकट है। यह मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा है। इसे जो प्यार और अच्छा भोजन मिल रहा है, उसके पीछे मालिक का क्षुद्र स्वार्थ है। कुछ ही दिनों में इसका परिणाम तुम खुद ही देख लोगे।"
कुछ दिन बीते। मालिक के घर पर मेहमान आ गये। बस, वही उस मेमने का अन्तिम दिन सिद्ध हुआ। स्वामी ने मेहमान की खातिरदारी के लिये उसे काटा और उसके माँस से अतिथि का सत्कार किया, उसे खिलाया और मालिक के परिवार ने भी खाया।