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85555555555555555555555555555555555555 + परूवेमि-देवलोएसु णं अज्जो! देवाणं जहन्नेणं दस वाससहस्साइं. तं चेव जाव तेण परं वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य। सच्चे णं एसमढ़े।
१०. [3.] आर्यों! इस प्रकार सम्बोधन करते हुए श्रमण भगवान् महावीर ने उन श्रमणोपासकों + को और उस बड़ी परिषद् को इस प्रकार कहा-हे आर्यो! ऋषिभद्र-पुत्र श्रमणोपासक ने जो 卐 तुमसे इस प्रकार (पूर्वोक्त) कहा है, यावत् प्ररूपणा की है कि देवलोकों में देवों की जघन्य 5 + स्थिति दस हजार वर्ष की है, उसके आगे एक-एक समय अधिक होते-होते यावत् उत्कृष्ट स्थिति 卐 तेतीस सागरोपम की है, यावत् इसके आगे देव और देवलोक विच्छिन्न अर्थात् नहीं हैं-यह बात
सत्य है। हे आर्यों! मैं भी इसी प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि देवलोकों में देवों की ॥ + जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है, यावत् उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस सागारोपम की है, यावत् इससे के आगे देव और देवलोक विच्छिन्न हो जाते हैं। आर्यो! यह बात पूर्ण रूप से सत्य है।
. 10. [Ans.] “Noble ones!” Addressing thus Shraman Bhagavan 4 Mahavir said to those shramanopasaks and that large assembly—“Noble Hones! Shramanopasak Rishibhadraputra has told you... and so on up
to... propagated that the minimum life-span of gods in divine realms is said to be ten thousand years; then with gradual increase of one Samaya, two Samayas... and so on up to... ten Samayas, countable Samayas, uncountable Samayas it can reach the maximum of thirty three Sagaropams. Beyond that gods and divine realms are extinct. This statement is true. O Noble ones! I also say this... and so on up to... propagate this that the minimum life-span of gods in divine realms is said to be ten thousand years... and so on up to... it can reach the maximum of thirty three Sagaropams. Beyond that gods and divine realms are extinct.' This statement is absolutely true.”
११. तए णं ते समणोवासगा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमठे सोच्चा ॐ निसम्म समणं भगवं महावीरं वंदति नमसंति, वं. २ जेणेव इसिभद्दपुत्ते समणोवासए तेणेव
उवागच्छंति, उवा, २ इसिभद्दपुत्तं समणोवासगं वंदति नमसंति, वं. २ एयमढें सम्मं विणएणं. भुज्जो भुज्जो खामेंति।
[११] तदोपरान्त उन श्रमणोपासकों ने श्रमण भगवान् महावीर के पास से यह समाधान सुनकर और (हृदय में) अवधारण कर उन्हें वन्दन-नमस्कार किया। इसके बाद जहाँ ऋषिभद्र-पुत्र
श्रमणोपासक था, वे वहाँ आए। ऋषिभद्र-पुत्र श्रमणोपासक के पास आकर उन्होंने उसे ॐ वन्दन-नमस्कार किया फिर उसकी (पूर्वोक्त) बात को सत्य न मानने के लिए विनयपूर्वक
बार-बार क्षमायाचना करने लगे।
ग्यारहवाँ शतक : बारहवाँ उद्देशक
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Eleventh Shatak : Twelfth Lesson
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