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8. After that, Shraman Bhagavan Mahavir gave his sermon to those 卐 shramanopasaks and that great assembly... and so on up to... Hearing that they all became his followers.
९. तए णं ते समणोवासया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ट तुट्ठा उट्ठाए उट्ठेइ, उ. २ समणं भगवं महावीरं वंदंति नमसंति, वं. २ एवं वयासी
[प्र.] एवं खलु भंते ! इसिभद्दपुत्ते समणोवासए अम्हं एवं आइक्खड़ जाव परूवेइ - देवलोएसु णं अज्जो ! देवाणं जहन्नेणं दसवाससहस्साइं ठिई पन्नत्ता, तेण परं समयाहिया, जाव तेण परं वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य । से कहमेयं भंते ! एवं ?
[९] तदोपरान्त वे श्रमणोपासक श्रमण भगवान् महावीर के पास से धर्म श्रवण कर एवं (उसे हृदय में) अवधारण करके हृष्ट-तुष्ट हुए। फिर वे सभी उठे और खड़े होकर उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन - नमस्कार किया और इस प्रकार पूछा
[प्र.] भगवन् ! ऋषिभद्र - पुत्र श्रमणोपासक ने हमें इस प्रकार कहा है, यावत् प्ररूपणा की
है - हे आर्यों! देवलोकों में देवों की स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष कही गई है। उसके आगे
एक-एक समय अधिक करते-करते यावत् (पूर्ववत्) देवलोक की उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस सागरोपम
की कही गई है, यावत् इसके बाद देव और देवलोक विच्छिन्न हैं (अर्थात् इसके आगे देव और देवलोक की स्थिति) नहीं है। तो क्या भगवन् । यह बात ऐसी ही है ?
9. Those shramanopasaks were pleased and contented on hearing (and understanding) the sermon. Then they all stood up, offered salutations and homage to Bhagavan Mahavir and submitted
[Q.] Bhante ! Shramanopasak Rishibhadraputra has told... and so on up to... propagated - Noble ones! The minimum life-span of gods in divine realms is said to be ten thousand years; then with gradual increase of one Samaya, two Samayas... and so on up to... ten Samayas, countable Samayas, uncountable Samayas it can reach the maximum of thirty three Sagaropams. There are neither gods nor divine realms having lifespan more beyond this.' Bhante ! Is it as he has told?
१०. [ उ. ] 'अज्जो !' त्ति समणे भगवं महावीरे ते समणोवासए एवं वयासी - जपणं अज्ज! इसिभद्दपुत्ते समणोवासए तुब्भं एवं आइक्खड़ जाव परूवेइ - देवलोगेसु णं अज्जो ! देवाणं जहनेणं दस वाससहस्साइं ठिई पण्णत्ता तेण परं समयाहिया जाव तेण परं वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य। सच्चे णं एसमट्ठे । अहं पि णं अज्जो ! एवमाइक्खामि जाव
भगवती सूत्र (४)
(212)
Bhagavati Sutra ( 4 )
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