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२०. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेठे अंतेवासी जहा बिइयसए नियंठुद्देसए जाव अडमाणे बहुजणसदं निसामेइ-बहुजणो अन्नमन्नस्स एवं ॥
आइक्खइ जाव एवं परूवेइ-‘एवं खलु देवाणुप्पिया! सिवे रायरिसी एवं आइक्खइ जाव म परूवेइ-अस्थि णं देवाणुप्पिया! तं चेव जाव वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य। से कहमेयं ॐ मन्ने एवं?'
[२०] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी ॐ इन्द्रभूति अनगार ने, दूसरे शतक के निर्ग्रन्थोद्देशक (श. २ उ. ५) में वर्णित विधि के अनुसार
यावत् भिक्षार्थ-पर्यटन करते हुए, बहुत-से लोगों के शब्द सुनें। वे परस्पर एक-दूसरे से कह रहे
थे कि हे देवानुप्रियो! शिवराजर्षि यह कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि 'हे देवानुप्रियो ! इस ॐ लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं, इत्यादि यावत् उससे आगे द्वीप-समुद्र नहीं हैं, तो उनकी. यह बात कैसे मानी जाए?'
20. During that period of time the senior disciple of Bhagavan Mahavir, Indrabhuti Anagar, came there (following the procedure mentioned in Nirgranthoddeshak (Lesson-5 of Chapter-2)... and so on up to ... while moving about seeking alms, he heard many people talking among themselves-“Beloved of gods! Saint-king Shiva speaks and preaches thus-'0 beloved of gods ! I have gained supreme knowledge and perception with the help of which, I know and see that this Lok (occupied space or universe) has only seven continents and seven oceans; beyond that there are no continents or oceans.' Why should we believe his statement ?"
२१. [प्र.] तए णं भगवं गोयमे बहुजणस्स अंतियं एयमठे सोच्चा निसम्म जायसड्ढे फ़ जहा नियंठुद्देसए जाव तेण परं वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य। से कहमेयं भंते! एवं? ॐ [उ.] 'गोयमा!' दी समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासी-जंणं गोयमा! में से बहुजणे अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ तं चेव सव्वं भाणियव्वं जाव भंडानिक्खेवं करेइ, ॐ हत्थिणापुरे नयरे सिंघाडग. तं चेव जाव वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य। तए णं तस्स सिवस्स
रायरिसिस्स अंतिए एयमढं सोच्चा निसम्मं तं चेव सव्वं भाणियव्वं जाव तेणं पर वोच्छिन्ना
दीवा य समुद्दा य। तं णं मिच्छा। अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि-एवं के खलु जंबुद्दीवादीया दीवा लवणाईया समुद्दा संठाणओ एगविहिविहाणा, वित्थारओ
अणेगविहिविहाणा एवं जहा जीवाभिगमे जाव सयंभुरमणपज्जवसाणा अस्सि तिरियलोए असंखेज्जा दीवसमुद्दा पण्णत्ता समणाउसो!
भगवती सूत्र (४)
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Bhagavati Sutra (4)