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भावार्थ : दर्शन सम्यक्त्व का स्वरूप इस प्रकार है- परमार्थ रूप रत्नत्रय एवं नौ तत्वों का संस्तव तथा ज्ञान करना, जिन्होंने सुदृष्टि से परमार्थ को जान लिया है उनकी सेवाभक्ति करना, जिन्होंने सम्यक्त्व का वमन कर दिया है ऐसे लोगों की संगति का वर्जन करना, मिथ्यादृष्टियों एवं मिथ्यादर्शन का वर्जन करना, इस प्रकार से सम्यक्त्व की श्रद्धा होती है। सम्यक्त्व के प्रमुख रूप से पांच अतिचार हैं जिनका ज्ञान होना तो श्रावक के लिए आवश्यक है परन्तु उनका आचरण करना योग्य नहीं है। दर्शन के पांच अतिचार इस प्रकार हैं(1) शंका - जिन वचनों में संदेह करना, (2) कांक्षा - मिथ्यामतों की आकांक्षा करना, (3) विचिकित्सा - धर्म के फल में संदेह करना, (4) पर - पाखंडी प्रशंसा - अन्य मतावलंबियों की प्रशंसा करना, (5) पर - पाखण्डी संस्तव - अन्य मतावलंबियों से परिचय करना । इन पांच अतिचारों में से यदि कोई अतिचार लगा हो तो मैं उसकी आलोचना करता हूं। मेरा वह दुष्कृत मिथ्या हो ।
Exposition: The nature of Darshan Samyaktva is as under-To gain knowledge of three jewels leading to salvation and nine elements (tatvas) appreciate them who possess it. Serve those who have understood the path leading to salvation with right perception; avoid company of those who have discarded right perception after gaining it; avoid wrong perception and company of those who have wrong perception. In this manner the faith in right perception becomes firm. There are five likely faults in practice of right faith and it is essential for the Shravak to know them. They are as follows
Suspicion: To have doubt in the word of the Lord.
Kansha: To have keen desire to have knowledge about wrong perception. Vichikitsa: To have doubt about the reward of practice of Dharma.
To appreciate followers of wrong faith or other faiths.
To have intimate acquaintance with follower of wrong faith. In case I may have committed any one of the five faults. I condemn them. May my faults be condemned.
(1)
(2)
(3)
(4)
(5)
विधि : तत्पश्चात् अग्रिम पाठों द्वारा बारह व्रतों के स्वरूप का चिन्तन एवं अतिचारों की आलोचना करें |
Procedure: Thereafter by reciting the lessons mentioned ahead, one should think of the nature of twelve resolves and undertake self-criticism of faults committed there in.
चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण
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Shravak Avashyak Sutra