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षष्ठ अध्ययन : प्रत्याख्यान
आमुख :
'प्रत्याख्यान' छठा और अंतिम आवश्यक है । 'सामायिक' आवश्यक की नींव है तो ‘प्रत्याख्यान' उसका शिखर - कलश है। प्रत्याख्यान के अभाव में पूर्व के पांच आवश्यक अपूर्ण रह जाते हैं। प्रत्याख्यान की संपन्नता पर ही शेष पांचों आवश्यक संपन्न होते हैं। ऐसा क्यों है ? ऐसा इसलिए है कि प्रत्याख्यान से ही आत्मा से कर्मरज का अंतिम अलगाव होता है। उसी अंतिम अलगाव अथवा संपूर्ण निर्जरा के पश्चात् ही आत्मा में केवलज्ञान - केवलदर्शन का आलोक प्रकट होता है।
प्रत्याख्यान का अर्थ है-त्याग । संसार में अनन्त पदार्थ हैं और मनुष्य की इच्छाएं भी अनन्त हैं। दो अनन्तों का सम्मिलन सघन असंतोष और अशांति को उत्पन्न करता है । इसीलिए देवलोक का इन्द्र और भूलोक का चक्रवर्ती भी पदार्थों के उपभोग से कभी सन्तुष्ट नहीं हो पाता । तृप्ति ही सुख है। परन्तु जीव उसे पदार्थ के उपभोग में खोजना चाहता है। यही जीव का अज्ञान
है।
बुद्ध पुरुषों ने अध्यात्म की यात्रा कर इस सत्य का अनुसंधान किया कि तृप्ति पदार्थ के उपभोग से नहीं, बल्कि उसके त्याग से फलित होती है। अनुसंधान के अमृतफल के रूप में उन्होंने ‘प्रत्याख्यान' का विधान किया और बताया- आत्मन्! तू अलग है, पदार्थ अलग है। पदार्थ से आत्यंतिक अलगाव ही तेरे सुख की कुंजी है।
गौतम स्वामी ने भगवान् से प्रश्न किया
पच्चक्खाणेणं भंते! जीवे किं जणय ?
भगवन्! प्रत्याख्यान से जीव को किस गुण की प्राप्ति होती है ?
भगवान् ने फरमाया
षष्ठ अध्ययन : प्रत्याख्यान
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Avashyak Sutra
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