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________________ Poolskeseakskesiskele skesledisakeseksakalisakisekesicalskskskeletaliaslesaleslesalestealslesalestealskesistealsslesegree साधक जब अरिहंतों की स्तुति करता है तो अरिहन्तों की अनन्त सद्गुण शृंखला उसके स्वयं के जीवन में साकार होने लगती है। अरिहन्तों की स्तुति से स्तोता स्वयं भी अरिहन्त स्वरूप * हो जाता है। वस्तुतः वह स्तुति ही क्या जो स्तोता को स्तुत्य के तुल्य न बनाये। इसीलिए तो जिनोपासक भक्त कवि ने कहा था आपकी स्तुति से प्रभो! आप जैसे हों सभी। जो न अपने सम करे, क्या सेव्य है श्रीमान भी? कुछ विद्वानों की मान्यता है कि जैन धर्म में 'स्तुति' के लिए कोई स्थान नहीं है। उन महानुभावों के लिए चतुर्विंशति स्तव और शक्रस्तव (नमोत्थुणं के पाठ) का अध्ययन-मनन आवश्यक है जो स्तुति जगत की श्रेष्ठ रचनाएं हैं। 3. वन्दन-आवश्यक का तीसरा सोपान है वन्दन! समताभाव में स्थित साधक चौबीस अरिहंतों के गुणों का चिन्तन करते हुए, उक्त महामार्ग के दाता अपने सद्गुरु के महान उपकार के प्रति अनन्त असीम कृतज्ञता से भर जाता है। गुरुदेव के पावन चरणों पर वह स्वयं को समग्रतः समर्पित कर देता है। भाव-विभोर होकर गुरुदेव के चरणों में वन्दन करता है एवं गुरुदेव की * शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक सुख शांति की पृच्छा कर अपने हृदय के मोद को प्रकट करता है। वन्दन नामक 'इच्छामि खमासमणो' सूत्र में शिष्य की कृतज्ञता और भावपूर्ण वन्दना का विलक्षण चित्र उभरता है। ____4. प्रतिक्रमण-यह आवश्यक का चतुर्थ सोपान है। प्रतिक्रमण का अर्थ है-पुनः लौटना। मिथ्यात्व से सम्यक्त्व, अव्रत से व्रत, प्रमाद से अप्रमाद, कषाय से अकषाय एवं अशुभ योग से शुभ योग में लौट आने का नाम है प्रतिक्रमण। 'प्रतिक्रमण' आवश्यक का प्राण है। "प्रतिक्रमण आवश्यक" में ग्रहण किए गए समस्त व्रतों में उत्पन्न दोषों की आलोचना की जाती है। प्रतिक्रमण वस्तुतः एक दर्पण है जिसमें झांक कर साधक स्वयं के दोषों का अवलोकन और शोधन करता है। स्वयं द्वारा गृहीत प्रत्येक व्रत को साधक स्मरण करता है, स्मरण के साथ-साथ उसमें उत्पन्न दोषों की आलोचना करता है और उन दोषों को पुनः न दोहराने की प्रतिज्ञा करता है। ईसाई धर्म में स्वीकार करने (कन्फैस) का जो स्थान है, आवश्यक सूत्र में वही स्थान प्रतिक्रमण का है। स्वयं द्वारा स्वयं के दोषों का दर्शन और निरसन प्रतिक्रमण की फलश्रुति है। ____5. कायोत्सर्ग-यह आवश्यक का पंचम सोपान है। कायोत्सर्ग में देह की ममता और चंचलता का त्याग किया जाता है। जिन मुद्रा में स्थित होकर साधक जिनेन्द्र देवों और स्वात्मा के गुणों का स्मरण करता है। देह-दशा से ऊपर उठकर आत्म-तल पर विहार करते हुए तथा शुद्धात्म भाव में रमण करते हुए विशिष्ट आत्म-शुद्धि करता है। // xiii // ਸਰਗਰਸਲਜ਼ਾਰ ਕਰਨ ਲਈ
SR No.002489
Book TitleAgam 28 Mool 01 Aavashyak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2012
Total Pages358
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size15 MB
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