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जल-स्नान से जैसे शरीर शुद्ध हो जाता है वैसे ही आवश्यक-आराधना से आत्मा शुद्ध हो जाती है। वस्तुतः अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अव्याबाध आनन्द-ये आत्मा के निजरूप हैं, स्वभाव हैं। जल में जैसे शीतलता रहती है, अग्नि में जैसे उष्णता रहती है वैसे ही आत्मा में ज्ञान, दर्शन एवं आनन्द का निवास है। ज्ञान और आत्मा दो अलग-अलग तत्व नहीं हैं। इसी प्रकार दर्शन और आत्मा तथा आनन्द और आत्मा भी अलग-अलग नहीं हैं। जहाँ आत्मा है, उसका ज्ञान, दर्शन, आनन्द रूप स्वभाव वहीं उसके साथ अखण्ड रूप से विद्यमान है। परन्तु कर्मरज ने आत्मा के ज्ञान-दर्शन-आनन्द रूप स्वभाव को ढांप लिया है। दर्पण पर जैसे धूल जम जाये तो उसमें द्रष्टा का प्रतिबिम्ब नहीं उभरता है वैसे ही आत्मा रूपी दर्पण पर भी आठ-आठ कर्मों की असंख्य धूल-राशियाँ अनादिकाल से जमी हुई हैं। उन्हीं धूल-राशियों के कारण आत्मा अपने निज स्वरूप ज्ञान-दर्शन एवं आनन्द से अनभिज्ञ रहता है। ___'आवश्यक' उस धूल को दूर करने की विधि है। आवश्यक की सतत आराधना से आत्मा निर्मल हो जाती है, शुभ और शुद्ध हो जाती है। आत्मा का शुद्ध स्वरूप ही उसका परमात्मत्व है, उसका ईश्वरत्व है। आवश्यक के छह सोपान
आवश्यक के छह सोपान हैं। इन छह सोपानों पर क्रमशः आरोहण से आत्म-शुद्धि की यात्रा संपन्न होती है। छह सोपानों का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है___1. सामायिक-आत्मशुद्धि की साधना के लिए उपस्थित हुए साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह सर्वप्रथम समभाव की भूमिका पर प्रतिष्ठित हो। वैर, द्वेष, आक्रोश, प्रलोभन आदि समस्त दुर्भावों से उन्मुक्त होकर शुद्ध समताभाव में स्थित हो। समभाव में स्थित साधक ही निरपेक्ष भाव से अपने गुणों और दोषों का सही-सही आकलन कर सकता है। विषम भावों से भरे हुए व्यक्ति को तो अपने गुण और दूसरों के दोष ही दिखायी देंगे। इसलिए सामायिक को आवश्यक का प्रथम सोपान निर्धारित किया गया है।
सामायिक का अर्थ है-लाभ-अलाभ, सुख-दुख, जीवन-मरण सभी अवस्थाओं में समभाव रखना। सुख हो तो उसमें भी शान्त रहना, दुख हो तो उसमें भी प्रसन्न रहना। ज्ञाता-द्रष्टा भाव में स्थित होकर घटने वाली प्रत्येक घटना को केवल देखना। घटना के साथ बहना नहीं। स्वभाव में स्थिर रहना।
2. चतुर्विंशतिस्तव-आवश्यक का द्वितीय सोपान है-भक्ति भाव से भरकर चौबीस जिनदेवों की स्तुति करना। इस जगत में अरिहन्त ही सर्वोच्च स्तुत्य हैं। समता भाव में स्थित
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