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(21) क्षीण-मनुष्यायु, (22) क्षीण-देवायु, (23) क्षीण-शुभनाम कर्म, (24) क्षीण-अशुभनाम कर्म, (25) क्षीण-उच्च गोत्र, (26) क्षीण-नीच गोत्र, (27) क्षीण-दानान्तराय, (28) क्षीण-लाभान्तराय, (29) क्षीण-भोगान्तराय, (30) क्षीण-उपभोगान्तराय, (31) क्षीण-वीर्यान्तराय। ___उपरोक्त सिद्ध-गुणों में श्रद्धा न करने से, विपरीत प्ररूपणा करने से महान दोष की उत्पत्ति होती है। साधु को तदर्थ सजग रहना चाहिए। भूलवश ऐसा हो जाए तो 'सिद्ध गुण प्रतिक्रमण' द्वारा आत्मशुद्धि करनी चाहिए।
योग संग्रह प्रतिक्रमण : बत्तीस प्रकार के योग संग्रह का स्वरूप इस प्रकार है - (1) आलोचना-गुरुजनों के समक्ष अपने दोषों की आलोचना करना। (2) निरपलाप-किसी की आलोचना सुनकर दूसरों के समक्ष प्रकट नहीं करना। (3) दृढ़धर्मिता-उपसर्गों में भी दृढ़ता पूर्वक धर्मपथ पर डटे रहना। (4) अनिश्रितोपधान-दूसरों की सहायता की अपेक्षा नहीं रखते हुए तप करना। (5) शिक्षा अध्ययन-अध्यापन की कलाओं और शिक्षाओं का अभ्यास करना। (6) निष्प्रतिकर्मता-शारीरिक शृंगार नहीं करना। (7) अज्ञातता-पूजा-प्रतिष्ठा की भावना से ऊपर उठकर गुप्त तप करना। (8) अलोभता-लोभ का परिहार करना। (9) तितिक्षा-समभाव से कष्टों को सहना। (10) आर्जव-सरलभाव धारण करना। (11) शुचि-सत्य एवं संयम की पवित्रता रखना। (12) सम्यग्दृष्टिता-सम्यक्त्व की विशुद्धि। (13) समाधि-मानसिक स्वास्थ्य एवं एकाग्रता। (14) आचारोपगत-पंचविध आचार का निरतिचार पालन करना। (15) विनयोपगत-विनम्रभाव धारण करना। (16) धृति-मति-धैर्य रखना। (17) संवेग-मोक्ष की अभिलाषा रखना। (18) प्रणिधि-माया का त्याग करना। (19) सुविधि-श्रेष्ठ अनुष्ठान में संलग्न रहना।
(20) संवर-आस्रव-द्वारों को रोकना। आवश्यक सूत्र
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IVth Chp. : Pratikraman Happs
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