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________________ (16) राजा, नगरसेठ आदि को मार देना। (17) लोकप्रिय नेता को मार देना। (18) संयमी को संयम से भ्रष्ट कर देना। (19) केवलज्ञानी की निन्दा करना। (20) मोक्ष-मार्ग से जनता को विमुख करना। (21) ज्ञान दाता गुरुजनों को अपमानित करना, उनकी निन्दा करना। (22) आचार्य, उपाध्याय आदि संघ प्रमुख की सेवा-भक्ति न करना। (23) बहुश्रुत न होते हुए भी स्वयं को बहुश्रुत कहना, कहलवाना। (24) तपस्वी न होते हुए भी स्वयं को तपस्वी कहना, कहलवाना। (25) समर्थ होते हुए भी स्वयं के आश्रित रोगी, तपस्वी आदि की सेवा न करना। (26) ज्ञान-दर्शन-चारित्र से पतित करने वाली विकथाएं पुनः पुनः करना। (27) जादू-टोना करना, कराना। (28) प्रत्यक्ष में भोगों की निन्दा करना, परोक्ष में भोगों का सेवन करना। (29) देवताओं की ऋद्धि, समृद्धि आदि का उपहास उड़ाना। (30) देव-दर्शन न होने पर भी कहना कि मुझे देव-दर्शन होता है। उपरोक्त तीस दुराचरणों में यदि किंचित् भी रुचि उत्पन्न हुई हो तो साधक को प्रतिक्रमण द्वारा आत्मशुद्धि कर लेनी चाहिए। सिद्ध गुण प्रतिक्रमण : वैदिक परम्परा में जिन्हें 'निर्गुण ब्रह्म' कहा जाता है, जैन परम्परा में उन्हें सिद्ध कहा जाता है। सिद्ध यानी जिन्होंने समस्त आत्मगुणों को साध लिया है आठ कर्मों की 31 प्रकृतियों से सर्वथा निर्लिप्त एवं सिद्धि-स्थान में विराजित जीव सिद्ध कहलाते हैं। सिद्धों में अनन्त गुण होते हैं। 31 बोलों में उन अनन्त गुणों को संकलित किया गया है। 31 गुणों का स्वरूप इस प्रकार है - (1) क्षीण-मतिज्ञानावरण, (2) क्षीण-श्रुतज्ञानावरण, (3) क्षीण-अवधि-ज्ञानावरण, (4) क्षीण-मन:पर्यवज्ञानावरण, (5) क्षीण-केवलज्ञानावरण, (6) क्षीण-चक्षुदर्शनावरण, (7) क्षीण-अचक्षुदर्शनावरण, (8) क्षीण-अवधिदर्शनावरण, (9) क्षीण-केवलदर्शनावरण, (10) क्षीण-निद्रा, (11) क्षीण-निद्रानिद्रा, (12) क्षीण-प्रचला, (13) क्षीण-प्रचलाप्रचला, (14) क्षीण-स्त्यानगृद्धि, (15) क्षीण-सातावेदनीय, (16) क्षीण-असातावेदनीय, (17) क्षीणदर्शन मोहनीय, (18) क्षीण-चारित्रमोहनीय, (19) क्षीण-नैरयिकायु, (20) क्षीण-तिर्यंचायु, Assesseslesskelesdeshe slesaleshestastrotestostranslatestosdeshe strate strokestatestostesslestrolshesdesdeshe sakesekseels arkesterestinalesaleselskestaskssheskossleep चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण // 114 // Avashyak Sutra
SR No.002489
Book TitleAgam 28 Mool 01 Aavashyak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2012
Total Pages358
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size15 MB
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