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ಕಶಳರಳಳಕಗಳNರ್ಶಕರಣಿಗಳ
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पापश्रुत प्रसंग प्रतिक्रमण : पाप के हेतुभूत विषयों का जिन ग्रन्थों में वर्णन हो, उन्हें पापश्रुत कहा जाता है। पापश्रुत का अध्ययन, अध्यापन एवं अभ्यास ‘पापश्रुत प्रसंग' है। श्रमण के लिए पापश्रुत का अध्ययन, श्रवण, प्ररूपण निषिद्ध है। कदाचित् प्रमादवश पापश्रुत के प्रति साधु के मन में अकर्षण उत्पन्न हो जाए तो वह ‘पापश्रुत प्रतिक्रमण' द्वारा आत्मशुद्धि कर ले।
पापश्रुत उनतीस प्रकार का है, यथा-(1) भौम, (2) उत्पात, (3) स्वप्नशास्त्र, (4) अन्तरिक्ष, (5) अंग-शास्त्र, (6) स्वर शास्त्र, (7) व्यंजनशास्त्र, (8) लक्षण शास्त्र। सूत्र, वृत्ति एवं वार्तिक के भेद से ये आठ शास्त्र चौबीस प्रकार के होते हैं। (25) विकथानुयोग, (26) मंत्रानुयोग, (27) विद्यानुयोग, (28) योगानुयोग, एवं (29) अन्यतीर्थिकानुयोग।
महामोहनीय स्थान प्रतिक्रमण : आठ कर्मों में मोहनीय कर्म सबसे प्रबल है। जीव जितने भी दुष्कर्म करता है उनके मूल में 'मोह' की प्रधानता रहती है। प्रबल मोह के वशीभूत होकर
संचित की गई कर्मराशि/ कर्मरज को 'महामोहनीय कर्म' कहा जाता है। महामोहनीय कर्म की · उत्कृष्ट स्थिति 70 कोटाकोटि सागरोपम की है। तीस कारणों से जीव महामोहनीय कर्म का बंध करता है। वे तीस कारण इस प्रकार हैं - - (1) त्रस जीवों को पानी में डुबो कर मारना।
(2) सिर पर चमड़ा आदि लपेटकर त्रस जीवों की हत्या करना। (3) श्वास नलिका या मुंह दबा कर जीवों की हत्या करना। (4) धुएं के प्रयोग से दम घोंटकर जीवों को मारना। (5) मस्तक पर प्रहार करके क्रूरता पूर्वक जीवों का वध करना। (6) विश्वासघात करके हत्या करना। (7) ग्रहण की हुई प्रतिज्ञा को भंग करना एवं छिपकर अनाचार का सेवन करना। . (8) दूसरों पर झूठे कलंक लगाना।
(9) सत्य जानते हुए भी सभा में मिश्रभाषा बोलना। (10) अपने स्वामी की स्त्री और धन को हड़प लेना। (11) बालब्रह्मचारी न होते हुए भी बाल-ब्रह्मचारी कहलाना। (12) ब्रह्मचारी न होते हुए स्वयं को ब्रह्मचारी घोषित करना। (13) आश्रय देने वाले के धन को हड़प लेना। (14) उपकारी के उपकार को भुला कर उसके साथ कृतघ्नता करना। (15) रक्षक, सेनापति या शास्ता की हत्या कर देना।
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