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श्रृंगार का त्याग करता है, धोती में लांग नहीं देता, रात्रि में आहार- पानी का प्रत्याख्यान करता है, एक मास में न्यूनतम एक रात एवं पांच महीने में पांच रातें धर्म- जागरण में व्यतीत करता है । इस प्रतिमा की अवधि जघन्य एक, दो, तीन दिन एवं उत्कृष्ट पांच मास की है।
(6) ब्रह्मचर्य प्रतिमा - इस प्रतिमा में ब्रह्मचर्य की निरतिचार आराधना की जाती है। इसकी अवधि जघन्य एक रात्रि की एवं उत्कृष्ट छह मास की है ।
(7) सचित्त-त्याग प्रतिमा - इस प्रतिमा में सभी सचित्त वस्तुओं के उपभोग का त्याग किया जाता है। इस प्रतिमा का कालमान जघन्य एक दिन एवं उत्कृष्ट सात मांस का है।
(8) आरंभ - त्याग प्रतिमा - इस प्रतिमा में आरंभ (हिंसाजन्य ) के समस्त व्यापारों का त्याग किया जाता है। इस की अवधि जघन्य एक दिन एवं उत्कृष्ट आठ मास की है।
(9) प्रेष्य-त्याग प्रतिमा - इस प्रतिमा में श्रावक दूसरों से भी आरंभ नहीं कराता । इसका कालमान जघन्य एक दिन एवं उत्कृष्ट नौ मास का है।
(10) उद्दिष्टभक्त - त्याग प्रतिमा - इस प्रतिमा में श्रावक स्वयं के निमित्त तैयार किए गए आहार -पानी का उपयोग नहीं करता । उस्तरे से सिर के केश काटता है । -गृह-संबंधी कार्यों में उपेक्षाभाव रखता है। किसी कार्य के पूछे जाने पर जानता है तो कहता है - जानता हूं, नहीं जानता है तो कहता है, नहीं जानता हूं। इस प्रतिमा की समयावधि जघन्य एक दिन एवं उत्कृष्ट दस मास की है।
(11) श्रमणभूत प्रतिमा - इस प्रतिमा में श्रावक साधु के समान आचार का पालन करता है। साधु के समान वेश धारण करके, साधु के योग्य भण्डोपकरण ग्रहण करके भिक्षाचरी करता है। सामर्थ्य है तो केशलुञ्चन करता है अन्यथा उस्तरे से शिरोमुण्डन करता है। इस प्रतिमा की अवधि जघन्य एक दिन - रात्रि की एवं उत्कृष्ट ग्यारह मास की है।
ग्यारहवीं प्रतिमा का धारक श्रावक 'श्रमण सूत्र' के पाठ से प्रतिक्रमण करता है।
उक्त उपासक प्रतिमाओं की यदि विपरीत प्ररूपणा हुई है तो उससे उत्पन्न दोष की साधु 'उपासक प्रतिमा प्रतिक्रमण " द्वारा आत्म-शुद्धि करता है।
भिक्षु-प्रतिमा प्रतिक्रमण : भिक्षु, श्रमण, निर्ग्रन्थ, साधु, मुनि- ये सभी जैन मुनि के लिए व्यवहृत होने वाले पर्यायवाची शब्द हैं। भिक्षु का शाब्दिक अर्थ है - वह साधक जिसका जीवन भिक्षावृत्ति पर आधारित है। मुनि अपने शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कोई उद्योग-व्यवसाय नहीं करता है। अहर्निश साधना में संलग्न रहता है । परन्तु जीवन - निर्वाह के लिए उसे भी अन्न-वस्त्र - पात्र आदि की आवश्यकता होती है। उस आवश्यकता को वह निर्दोष चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण
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Avashyak Sutra