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(5) पद्मलेश्या-यह श्रेष्ठ लेश्या है। इस लेश्या वाला व्यक्ति अपने आचार, विचार और वाणी के द्वारा सर्वत्र सद्गुणों की सुगन्ध बिखेरता है। __(6) शुक्ल लेश्या-शुक्ल का अर्थ है श्वेत। इस लेश्या वाला व्यक्ति शुभ्र-श्वेत (राग-द्वेष रहित) भावों में रमणशील रहता है। स्वयं तो किसी को कष्ट पहुंचाता ही नहीं, स्वयं को कष्ट पहुंचाने वालों पर भी मैत्रीभाव धारण करता है। ___ उपरोक्त छह लेश्याओं में से प्रथम तीन हेय एवं अंतिम तीन उपादेय हैं। __ भय-स्थान प्रतिक्रमण : साधु अभय की साधना करता है। वह स्वयं अभय होता है और र सभी को अभय का दान देता है। अभय का दाता होने से वह सदैव भय से मुक्त रहता है। फिर भी कभी मोहनीय कर्म के उदय से भय का भाव उसके हृदय में उत्पन्न हो जाए तो वह प्रतिक्रमण द्वारा उससे उत्पन्न दोष का निराकरण कर देता है। भय के स्थान सात हैं, यथा
(1) इहलोक भय-सजातीय प्राणियों से उत्पन्न होने वाला भय। जैसे मनुष्य को मनुष्य से, पशु को पशु से होने वाला भय।
(2) परलोक भय-दूसरी जाति अथवा गति के प्राणियों से होने वाला भय। जैसे मनुष्य को भूत-प्रेतों-देवों से तथा सर्प, बिच्छु आदि प्राणियों से भय होता है। . (3) आदान भय-धन आदि की सुरक्षा हेतु चोर-डाकुओं से डरना। (4) अकस्मात् भय-अकारण भयभीत हो जाना। (5) आजीविकाभय-आजीविका संबंधी भय। (6) मरण-भय-मृत्यु संबंधी भय। (7) अश्लोक भय-अपयश की आशंका से उत्पन्न होने वाला भय।
मद-स्थान प्रतिक्रमण : मद का अर्थ है-अहंकार। अहंकार से अनेक दोषों की उत्पत्ति होती है। अहंकारी व्यक्ति दूसरों के अपमान में आनंद मानता है। साधक अहंकार से सर्वथा दूर रहता है। अहं का कोई कण आत्मा को दूषित न करे इस हेतु वह प्रतिक्षण सावधान रहता है। कदाचित् अहं का कोई कण उसकी आत्मा को दूषित करता है तो वह उसके लिए प्रतिक्रमण करता है।
मद आठ प्रकार का है - (1) जाति मद-ऊंची जाति का अहंकार।
(2) कुल मद-ऊंचे कुल का अभिमान। (मातृपक्ष की जाति एवं पितृपक्ष की कुल संज्ञा है।)
ವರ್ಣಿಣಿಗಳ
आवश्यक सूत्र Bappapepar
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