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________________ (5) परिष्ठापनिका समिति - शरीर से उत्पन्न होने वाले मल, मूत्र, कफ, नख, केश आदि का विवेकपूर्वक जीवरहित स्थान पर त्याग करना । इन पांच समितियों की उचित आराधना में यदि कोई दोष लगता है तो साधक " पडिक्कमामि पंचहिं समिईहिं" इस सूत्र द्वारा उस दोष की शुद्धि करता है। जीव निकाय प्रतिक्रमण : जीव का अर्थ है - प्राणी और निकाय का अर्थ है- राशि अथवा समूह। छह ऐसी राशियां / निकाय हैं जिनके अन्तर्गत समस्त जीवों का समावेश हो जाता है। उन छह निकायों के नाम हैं - पृथ्वी, पानी, तेज (अग्नि), वायु, वनस्पति एवं त्रस । पृथ्वी ही जिन जीवों का शरीर है उन्हें पृथ्वीकाय कहा जाता है । इसी प्रकार क्रमशः जिन जीवों का शरीर अप्, तेजस्, वायु, एवं वनस्पति है, उन्हें अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक एवं वनस्पतिकायिक जीव कहा जाता है। इन पांचों निकायों के जीव स्थावर कहलाते हैं। ये स्थावर इसलिए कहलाते हैं क्योंकि इन जीवों में स्वेच्छा से एक स्थान से दूसरे स्थान पर गमन करने की योग्यता नहीं होती है। छठी जीव निकाय का नाम है - त्रस । त्रस प्राणियों में दो इन्द्रिय वाले, तीन इन्द्रिय वाले, चार इन्द्रिय वाले एवं पांच इन्द्रिय वाले समस्त जीवों का अन्तर्भाव हो जाता है। साधु द्वारा इन छहों जीवनिकायों में से किसी भी प्राणी की यदि हिंसा हो जाती है, या किसी जीव को कष्ट उत्पन्न हो जाता है तो साधु उस दोष के परिष्कार के लिए 'जीवनिकाय प्रतिक्रमण' करता है। लेश्या प्रतिक्रमण : विचार की शुभाशुभ तरंगों को लेश्या कहा जाता है। लेश्याएं छह हैं (1) कृष्ण लेश्या-अत्यन्त कलुषतापूर्ण मनोवृत्ति वाले जीवों के यह लेश्या होती है। ऐसे मनुष्य अत्यन्त क्रूर एवं निर्दय होते हैं। स्वयं के क्षुद्र से लाभ के लिए दूसरों के बड़े से बड़े अहित कर डालते हैं। इहलोक - परलोक का उन्हें किंचित् भी चिन्तन नहीं होता है । (2) नील लेश्या - इस लेश्या वाले जीव ईर्ष्यालु - मायावी एवं रसलोलुप होते हैं। प्रथम की अपेक्षा इस लेश्या वाले जीवों की क्रूरता किंचित् कम होती है। (3) कापोत लेश्या - इस लेश्या वाले जीव में चिन्तन का सूक्ष्म अंश जन्म लेता है । परन्तु उसकी वैचारिक कठोरता के समक्ष उसका वह चिन्तन दबा रहता है। इसलिए यह लेश्या भी अप्रशस्त है। (4) तेजोलेश्या - यह प्रशस्त लेश्या है। इस लेश्या वाला व्यक्ति स्वयं के साथ-साथ दूसरों के सुख का भी चिन्तन करता है। विनम्रता, करुणा, परोपकार वृत्ति इस लेश्या के लक्षण हैं। चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण // 98 // Avashyak Sutra
SR No.002489
Book TitleAgam 28 Mool 01 Aavashyak Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2012
Total Pages358
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size15 MB
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