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________________ %%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%] | १०. दशवाँ मोहनीय स्थान है कि राजा का जो मन्त्री यानि अमात्य अपने ही राजा की दाराओं (स्त्रियों) को या धन आगमन-द्वारों को विध्वंस कर तथा अनेक सामन्तों आदि को विक्षुब्ध करके राजा को अनधिकारी करके राज्य पर, रानियों पर तथा राज्य के धनागमन के द्वारों पर स्वयं अधिकार के जमा लेता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। ॐ ११. ग्यारहवाँ मोहनीय स्थान है कि जिसका सर्वस्व हरण कर लिया है, वह व्यक्ति भेंट आदि लेकर 5 तथा दीन वचन बोलकर अनुकूल बनाने के लिए यदि किसी के समीप आता है, ऐसे पुरुष के लिए जो प्रतिकूल वचन बोलकर उसके भोग-उपभोग के साधनों को नष्ट-विनष्ट करता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। || १२. बारहवाँ मोहनीय स्थान है कि जो पुरुष स्वयं विवाहित होते हुए भी अविवाहित होने का नाटक करता है और स्त्रियों में गृद्ध (आसक्त) और उनके अधीन रहता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। जो कोई पुरुष स्वयं अब्रह्मचारी होते हुए भी मैं ब्रह्मचारी हूँ ऐसा बोलता है, वह बैलों के मध्य में गधे के समान विस्वर (बेसुरा) नाद (शब्द) करता हुआ यानि रेंकता हुआ महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है तथा उक्त प्रकार से जो अज्ञानी पुरुष अपना ही अहित | करने वाले मायाचार युक्त बहुत अधिक असत्य वचन बोलता है और स्त्रियों के विषयों में आसक्त रहता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। १३. तेरहवाँ मोहनीय स्थान है कि जो राजा या मन्त्री आदि का सगा-सम्बन्धी है या जो राजादि की | ख्याति-प्रसिद्धि से अपना जीवन निर्वाह यानि आजीविका के लिए सेवा करता हो, फिर उसी के धन में लब्ध होता हो, वह पुरुष महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। १४. चौदहवाँ मोहनीय स्थान है कि जो किसी ऐश्वर्यवान पुरुष के द्वारा अथवा जन-समूह के द्वारा | कोई ऐश्वर्य रहित निर्धन पुरुष ऐश्वर्यशाली बना दिया गया हो, तब उस सम्पत्ति-विहीन पुरुष के अतुल यानि अपार लक्ष्मी हो गई और यदि वह ईर्ष्या द्वेष से प्रेरित होकर, कालुष्य चित्त से उस 'उपकारी पुरुष के या जन-समूह के भोग-उपभोगादि में अन्तराय या व्यवच्छेद डालने का विचार करता है, तो वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। १५. पन्द्रहवाँ मोहनीय स्थान है कि जो व्यक्ति अपना ही भला करने वाले का विनाश करता है, जैसे सर्पिणी या नागिन अपने ही अण्डों को खा जाती है, उसी प्रकार जो पुरुष अपना ही भला करने वाले स्वामी का अथवा धर्मपाठक का विनाश करता है, तो वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। १६. सोलहवाँ मोहनीय स्थान है कि जो व्यक्ति राष्ट्र के नायक का या निगम यानि विशाल नगर के नेता का अथवा महायशस्वी सेठ का घात करता है, वह महामोहनीय कर्म का बन्ध करता है। समवायांग सत्र % % %% 129 % % 30th Samvaya % % % % %% % % % % % % % %% %% % % % % % % % %
SR No.002488
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2013
Total Pages446
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size18 MB
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