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सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और मिश्र इनकी उत्पत्ति के पहले क्षण में साकारोपयोग होता है, तत्पश्चात् अनाकारोपयोग भी। अनाकारोगयोग काल में जीव को न सम्यक्त्व का लाभ होता है और न मिथ्यात्व का ही । सूक्ष्मसंपराय चारित्र और सिद्धत्व प्राप्ति का पहला समय साकारोपयोग में होता है। जितन विशिष्ट लब्धियां हैं, वे सब साकारोपयोग में होती हैं।
किसी भी वस्तु का साक्षात्कार कर लेना, इसे अनाकारोपयोग कहते हैं, उसके अन्तर्गत किसी भी विशेष गुण का प्रत्यक्ष करना साकारोपयोग है । छद्मस्थ में १० उपयोग पाए जाते हैं, जैसे कि ४ ज्ञान, ३ अज्ञान और ३ दर्शन । यदि वह सम्यग्दृष्टि है तो ७ पाए जा सकते हैं । यदि मिथ्यादृष्टि है, तो ६ उपयोग पाए जा सकते हैं । जितने उपयोग जिसमें हैं, उनमें से उपयोग कभी साकार में और कभी अनाकार में, इस प्रकार परिवर्तन होता रहता है, उपयोग की गति तीव्रतम है । शब्द की गति तीव्र है, उसकी अपेक्षा प्रकाश की गति अत्यधिक तेज है, सबसे तेज गति उपयोग की है। जैसे फिल्म का फीता बड़ी शीघ्रगति से घूमता है। यदि हम एक सैकिण्ड में किसी व्यक्ति को जिस अवस्था में देखते हैं, तो उसके अन्तराल में कितने ही चित्र आगे निकल जाते हैं । पहला चित्र कब निकला ? यह हमारी कल्पना से बाहिर है । आगम में सिर्फ एक समय की बात लिखी है, एक समय में एक साथ दो उपयोग नहीं हो सकते,
एक ही हो सकता है । और ऐसा भी नहीं होता कि किसी समय में दोनों उपयोगों में से कोई भी उपयोग . न पाया जाए, अन्यथा जीवत्व का ही अभाव हो जाएगा।
. शंका-आँख की छोटी-सी पुतली में हजारों लाखों पदार्थ एक साथ प्रतिविम्बित हो जाने से एक साथ सबका ज्ञान हो जाता है । इसी प्रकार केवली के ज्ञान में - सभी द्रव्य और सभी पर्याय एक साथ प्रतिभासित हो जाते हैं । अतः केवलदर्शन मानने की क्या आवश्यकता है ?
कैमरे में फोटों लेते हुए एक साथ अनेक व्यक्तियों का चित्र चित्रित हो जाता है तथा बाह्य दृश्य भी। जिस प्रकार स्वच्छ दर्पण में एक साथ अनेक दृश्य झलकते हैं। इसी प्रकार केवलज्ञान में सभी पदार्थ झलकते हैं अर्थात् प्रतिबिम्बित होते हैं, फिर केवलदर्शन मानने की क्या आवश्यकता है ?
उत्तर-इसका समाधान यह है, यदि अनावरण दर्पण में एक साथ अनेक पदार्थ अलग २ प्रतिबिम्बित होते हैं, तो वे सब प्रतिबिम्बि दर्पण के तथा कैमरे की रील के भिन्न अवयवों में पड़ते हैं, एक ही अवयव में नहीं । जहाँ एक वस्तु की प्रतिच्छाया पड़ती है, वहीं दूसरी वस्तु की नहीं । ये उदाहरण आत्मा के साथ घटित नहीं हो सकते, क्योंकि आत्मा अमूर्त एवं अरूपी है और पुद्गल रूपी है । रूपी की प्रतिच्छाया रूपी में ही पड़ सकती है, अरूपी में नहीं । आत्मा के संख्यात प्रदेश हैं, अनन्त नहीं । असंख्यात प्रदेशों में असंख्यात छोटे-बड़े पदार्थ प्रतिबिम्बित हो सकते हैं, अनन्त नहीं । अतः मानना पड़ेगा कि प्रत्येक पदार्थ का ज्ञान आत्मव्यापक होता है। प्रत्येक प्रदेश में अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन है तथा उनके समुदाय में भी अनन्त ज्ञान-दर्शन है, जैसे अनावृत्त एक प्रदेश भी केवलज्ञान एवं दर्शन है, उसमें भी व्यापक है, वैसे ही अन्य प्रदेशों में भी व्यापक है।
केवलदर्शन सामान्य का प्रत्यक्ष करता है और केवलज्ञान विशेष का। एक समय में सब पदार्थों का सामान्य प्रतिभास हो सकता है, किन्तु उसी समय सब पदार्थों का विशेष प्रतिभास भी होता है, ऐसा मानना युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता।
केवली के एक समय में एक साथ दो उपयोग न मानने का कारण सिर्फ यही है । जिस समय