________________
।
प्रदेश तुल्य हैं और असंख्यात हैं। सूक्ष्मसाधारण वनस्पति के शरीर, प्रत्येक शरीरी, पांच स्थावर, द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक जितने शरीरी हैं, भिन्न-भिन्न आठ प्रकार के कर्मों की स्थितिबंध के असंख्यात अध्यावसाय स्थान, अनुभाग के अध्यवसाय स्थान, योगप्रतिभाग के असंख्यात स्थान, दोनों कालों के समय इन दस राशियों को एकत्रित करने पर उसे फिर तीन बार गुणा करे, अन्त में जो गुणनफल निकले, उसमें से एक कम करने से उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात होता है। इसके विषय में विस्तृत वर्णन कर्मग्रन्थ के चौथे भाग में पाठक देख सकते हैं। पृथ्वी कायिक जीव कितने असंख्यात हैं ? अपकाय में कितने ? एवं वनस्पति काय तक कितने जीव हैं ? इन सबका उत्तर परिकर्म दृष्टिवाद से मिल सकता है। वे ६ प्रकार के असंख्यातों में किस असंख्यात में गर्भित हो सकते हैं ? इनका संक्षिप्त विवरण प्रज्ञापना सूत्र का १२ वा पद, अनुयोगद्वार सूत्र, चौथा और पांचवां कर्मग्रन्थ विशेष पठनीय हैं । वक्रिपवायुकायिक जीव उत्कृष्टक्षेत्रपल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र पाए जा सकते हैं। सम्पूर्ण व्याख्याग्रन्थ परिकर्म था, जो कि व्यवच्छेद हो गया है।
अनन्त के आठ भेद १. ज० परित्तानन्त, मध्यम परित्तानन्त उ०, परित्तानन्त,
२. ज० युक्तानन्त, मध्यम युक्तानन्त, उ० युक्तानन्त, - ३. जघन्य अनन्तानन्त, मध्यमानन्तानन्त, उ० अनन्तानन्त नहीं है।
.. उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात में एक और मिला देने से ज० परित्तानन्त होता है, उसे उतने से परस्पर गुणाकार करने या अभ्यास करने से जो फलितार्थ निकले, उसमें से एक कम करने पर उत्कृष्ट परितानन्त होता है, उसमें एक और मिला देने पर ज० युक्तानन्त होता है। अभव्य जीव भी जघन्य युक्तानन्त हैं न इससे न्यून और न अधिक । सम्यक्त्व के प्रतिपाती जीव उनसे अनन्तगुणा हैं, सिद्ध उनसे भी अनन्तगुणा हैं । सिद्ध, और.निगोद के जीव, समुच्चय वनस्पति, अतीत, वर्तमान और भविष्यत् काल के समय, सभी पुद्गल और अलोकाकाश के प्रदेश, इन सब को मिलाने के बाद जो राशि प्राप्त हो, उसे क्रमशः तीन बार गुणा करे, तब भी उत्कृष्ट अनन्त-अनन्त नहीं होता। उसमें केवलज्ञान और केवलदर्शन की पर्याय मिला देने पर उत्कृष्ट अनन्तानन्त होता है। एक शरीर में जितने अनन्त जीव हो सकते हैं, मतिज्ञान की पर्याय, श्रुतज्ञान की पर्याय एवं अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान की पर्याय एवं मति, श्रुत और विभंगज्ञान की अनन्त पर्याय हैं। उन सबका या प्रत्येक का अन्तर्भाव किस अनन्त में हो सकता है ? इन सब का उत्तर परिकर्म दृष्विवाद में मिल सकता है। अनन्तों के अनन्त भेद हैं. शेषसूत्रों में तो सिन्धु में से विन्दु मात्र है । आज के युग में वह बिन्दु भी सिन्धु जैसा ही अनुभव होता है ।
दृष्पिवाद में स्वसिद्धान्त एवं पर सिद्धान्त तथा उभय सिद्धान्त का सविस्तर उल्लेख है । जैसे कि कतिपय दार्शनिकों का अभिमत है कि जीवात्मा सदाकाल से अवन्धक ही है, वह कभी भी न बन्धक बना, न है और न बन्धक बनेगा, क्योंकि आत्मा अरूपी है, जो कर्म पौद्गलिक है, उनके बन्धन से वह कैसे बन्धक बन सकता है ? यह उनकी युक्ति, है, आत्मा सदा कर्मों से निर्लिप्त ही है।
. कुछ दार्शनिकों की मान्यता है कि आत्मा अकर्ता है, प्रकृति की है। यदि आत्मा को कर्ता माना जाए तो वह मुक्तावस्था में भी कर्ता ही रहेगा। जब निरुपाधिक ब्रह्म कुछ नहीं कर सकता है, तब वह संसारावस्था में कर्ता कैसे हो सकता है ? जो पहले कर्ता है, वह आगे भी सदा से लिए कर्ता