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________________ आयु वाले कहे जाते हैं । संख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य और तिर्यंच चारों गतियों में उत्पन्न हो सकते हैं, किन्तु असंख्यात वर्ष की आयु वाले केवल देवगति में ही उत्पन्न हो सकते हैं। नारकी और देवता आयु पूर्ण होने के बाद संख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य और तिथंच बन सकते हैं। सर्वविरति, देशविरति और अविरति सम्यग्दृष्टि मनुष्य संख्यात ही हो सकते हैं । गर्भज संज्ञी मनुष्य भी संख्यात ही हैं। संज्ञी मनुष्य की गति और आगति भी संख्यात ही है। सर्वार्थसिद्ध महाविमान में संख्यात ही देवता रहते हैं । अप्रतिष्ठान नरकावास में भी नारकी संख्यात ही हैं। रत्नप्रभा पृथ्वी में पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे पाथड़े तक संख्यात वर्ष की आयु वाले नैरयिक पाए जाते हैं । संख्यात योजनों के लम्बे-चौड़े नरकावासों में, भवनों में और विमानों में संख्यात नारकी और देवता पाए जाते हैं। कोई भी सशक्त देवता या मनुष्य यदि उत्तर वैक्रिय करे, तो संख्यात ही कर सकता है, असंख्यात नहीं। छठे गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक संख्यात जीव पाए जाते हैं। एक मुहूर्त में.१६७७७ २१६ आवलिकाएं पाई जाती हैं। अतः यह भी संख्यात ही हैं। जीव का सबसे छोटा भव दो सौ ' छप्पन आवलिकाओं का होता है। अपर्याप्त अवस्था में कोई भी जी- २५६ आवलिकाएं पूरी किए बिना काल नहीं करता, यह भी संख्यात ही है। नौवें देवलोक से लेकर छबीसवें देवलोक तक देवता संख्यात ही उत्पन्न होते हैं और उनका च्यवन भी संख्यात ही होता है। उत्सर्पिणी काल में चौबीसवें तीर्थंकर का शासन संख्यात काल तक चलेगा। लवण समुद्र में जितनी जल की बून्हें हैं, जितने संसार में धान्य के कण हैं, जितनी विश्वभर में पुस्तकें हैं, जितने उनमें अक्षर हैं, वे सब संख्यात को अतिक्रम नहीं करते । द्वादशांग गणिपिटक में अध्ययन, उद्देशक, प्रतिपत्ति, श्लोक, पद और अक्षर सब संख्यात ही हैं ।मनःपर्यवज्ञानी संख्यात संज्ञी जीवों के भावों को जानने की शक्ति रखते हैं । ऐसे भी जीव । हैं, जिन्हें सिद्ध होने में संख्यात भव ही शेष रहते हैं। जिन्होंने तीर्थंकर नाम-गोत्र कर्म बन्धा हुआ है, वे जीव भी संख्यात ही हैं । अवेदी मनुष्य भी संख्यात ही हैं। पुरुषोंसे स्त्रीएं संख्यात गुणा अधिक हैं । आगमों में जहां कहीं भी संख्यात शब्द का प्रयोग किया है, वह दो से लेकर शीर्षप्रहेलिका के अन्तराल व पूर्णता का सूचक समझना चाहिए। परिकर्म में असंख्यात, और अनन्त द्रव्य पर्यायों का नाप-तोल है । असंख्यात ६ प्रकार का होता है, जैसे कि १ ज० परित्तासंख्यात, २ मध्यम परित्तासंख्यात, उ० ३ परित्तासंख्यात । . ४ ज० युक्तासंख्यात, ५ मध्यम युक्तासंख्यात, ६ उ० युक्तासंख्यात । ७ ज० असंख्यातासंख्यात, ८ म० असंख्यासंख्यात, ९ उ. असंख्यातासंख्यात । एक आवलिका, जघन्य युक्तासंख्यात समयों के समुदाय की होती है। लब्धि अपर्याप्तक सूक्ष्म निगोदिय जीव का शरीर भी आकाश के असंख्यात प्रदेशों को अवगाहन करता है। वे आकाश प्रदेश, कितने असंख्यात प्रदेश हैं ? इनका हिसाब परिकर्म में है। प्रतर की एक श्रेणि में जितने प्रदेश हैं। वे उपर्युक्त 6 में से किसमें समाविष्ट हो सकते हैं ? ___ संपूर्ण प्रतर में जितने आकाश प्रदेश हैं, वे किस भेद में अन्तर्भूत हो सकते हैं ? सात घन राजू में जो आकाश प्रदेश हैं, वे किसमें ? इन सबका उत्तर परिकर्म दृष्टिवाद श्रुत से मिल सकता है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश, और एक जीव इन चारों के असंख्यात-असंख्यात प्रदेश हैं, परस्पर चारों के
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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