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________________ २१ शान्त हो जाती थी, लौकिक विद्या के पारगामी तो वे घर में ही होते थे। मुमुक्षुओं की अभिरुचि सदाकाल से आगमों की ओर ही रही है। आम आध्यात्मिक शास्त्र हैं, इन्हीं के अध्ययन से संयम मार्ग में प्रगति हो सकती है, अन्यथा नहीं मनुष्य जिस कार्यक्षेत्र में उतरता है, यह तद् विषयक ज्ञान प्राप्त करने में अधिक लालायित रहता है तथा अभिरुचि रखता है। महाव्रती का उच्च जीवन आगमों के श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले अध्ययन से ही हो सकता है | आगम युग प्रायः आगम व्यवहारियों का रहा है । उस युग में अन्य किसी व्यवहार की आवश्यकता नहीं रहती । अनुयोगाचार्य और मुमुक्षु शिष्यों का युग ही आगमयुग कहलाता है । द्वादशांग गणिपिटक के अतिरिक्त १२ उपांग, ४ मूल, ४ छेद इत्यादि आगमों की रचना घुतकेवली स्थाविरों ने शिष्यों की सुगमता के लिए की है जब काल के प्रभाव से दृष्टिवाद का व्यवच्छेद हुआ तब सूत्र व्यवहारियों का युग आया अवशिष्ट तथा उपलब्ध आगमों को सुरक्षित रखने के लिए विशिष्ट प्रतिभाशाली आचार्योंने निर्युक्ति, वृत्ति, चूणि, एवं भाष्य इत्यादि रचनाओंसे शिष्यों की अभिरुचि आगमों के प्रति न्यून नहीं होने दी । तत्पश्चात् शास्त्रार्थ का युग आया, तब सिद्धसेन, हरिभद्र, हेमचन्द्राचार्य आदि शास्त्रार्थं महारथियों ने श्रमणों की अनेकान्तवाद, नय, निक्षेप प्रमाण लक्षण, सप्तभंगी नव्य स्वाय की ओर अभिरुचि बढ़ाई | इससे आगमों की प्रगति तो कुछ मन्थर हो गई, किन्तु प्रवचन प्रभावना से तथा प्रवादी रूप आततायियों से श्रीसंघ की रक्षा के प्रति श्रमणों का मन आकृष्ट हुआ । श्रमणवर्ग संयम और तप से अपनी, प्रवचन की तथा श्रीसंघ की रक्षा करने में सदाकाल से ही अग्रसर रहा है, उसने एड़ी की जगह अंगुठा नहीं रखा। आगमों की भाषा अर्धमागधी आगम-भाषा सदा काल से अर्धमागधी ही रही है। जैन परम्परा के अनुसार तीर्थंकर अर्धमागधी भाषा में प्रवचन, देशना एवं शिक्षा देते हैं । तीर्थंकर अर्धमागधी के अतिरिक्त अन्य भाषा नहीं बोलते । वैसे तो केवलज्ञाशी कौन-सी भाषा नहीं जानते ? अर्थात् वे सभी भाषाओं के परिज्ञाता होते हैं। फिर भी सुकोमल और सर्वोत्तम होने के कारण भगवान् अर्धमागधी वाणी में ही देशना देते हैं। प्रभु के द्वारा उच्चारित वह भाषा आर्य-अनार्य द्विपद-चतुष्पद सब के लिए हितकर शिवंकर एवं सुखप्रदात्री रही है अर्थात् इस भगवद्वाणी को सभी अपनी भाषा के अनुरूप समझ लेते थे। यह भाषातिशय केवल महावीर में ही न था, अपितु सभी तीर्थकर इस अतिशय के स्वामी होते हैं तीर्थंकर भगवान् के ३४ अतिशयों में यह भाषातिशय भी है कि अर्धमागधी में प्रवचन करते समय वह भाषा उसी भाषा में परिणत हो जाती है, जिसकी जो भाषा है ।" । कुछ लोगों की ऐसी धारणा है कि यह अर्धमागधी भाषा उस समय मगध के आधे भाग में बोली जाती थी । इसीलिए इसे अर्धमागधी कहा जाता है । वास्तव में ऐसी बात नहीं है, केवल शब्द मात्र की व्युत्पत्ति पर ही ध्यान नहीं देना चाहिए, तीर्थंकरों का अर्धमागधी भाषा में बोलना अनादि नियम है । १. भगवं च णं श्रद्धमागहीए मालाएं धम्मम इक्खर, सा वि य णं अद्धमागही भाता मारिया पर सोहि भासिज्जनाणी, तेसिं सव्वेसिं आरियभासत्ता परिणमा | समवायाङ्ग सूत्र, ३४ वां समवाय । भाखर अरिहा पम्परिक तेर्सि २. सन्यासी सरसईए जोक्स संहारिया संग मागदार भासा सवेसिं आरियमारिया अगिला धम्मं आइक्खर, सावि य णं श्रद्धमागहा भासा तेसिं सव्वेसिं आरियमणारया अपणो स-भासाए परिणामेां परिणमइ । औपपातिक सूत्र सू० ५६ ।
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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