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सूत्र के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है, जिसमें महार्थ को गभित किया जा सके । जैसे बहुमूल्य रत्न में सैकड़ों स्वर्ण मुद्राएं, हजारों रूपय, लाखों पैसे समाविष्ट हो जाते हैं। वैसे ही तीर्थंकर भगवान् के तथा श्रुतकेवली के प्रवचन; शब्द की अपेक्षा से स्वल्पमात्रा में होते हैं और अर्थ में महान् ।
जिस मनुष्य के विषय एवं कषाय के विकार शान्त हों तथा ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम अधिकमात्रा में हो, वही सम्यग्दृष्टि सूत्र में से महान् अर्थ निकाल सकता है । वही सुप्त सूत्र को जगाने में समर्थ हो सकता है । बीज में जैसे मूल-कन्द, स्कन्ध-शाखा, प्रशाखा, किसलय, पत्र-पुष्प, फल और रस सब कुछ विद्यमान हैं, जब उसे अनुकूल जल, वायु, भूमि, समय, और रक्षा के साधन मिलते हैं; तब उसमें छिपे हुए या सुप्त पड़े हुए सभी तत्त्व यथा समय जागृत हो जाते हैं। वैसे ही सूत्र भी बीज की तरह महत्ता को अपने में लिए हुए हैं। पुस्तकासीन, अनुपयुक्त तथा मिथ्यात्व दशा में जीव के अन्तर्गत श्रनज्ञान सप्त होता है। जब सच्चे गुरुदेव के मुखारविन्द से विनयी शिष्य, दत्त-चित से क्रमशः, श्रवण-पठन, मनन-चिन्तन और अनुप्रेक्षा करता है, तब सुप्त श्रुत जागरूक हो जाता है। द्रव्यश्रुत ही भाव श्रुत का कारण है। इसको "कारण में कार्य का उपचार" ऐसा भी कहा जा सकता है । पुन:-पुन: ज्ञान में उपयोग लगाना इसे श्रतधर्म या स्वध्याय धर्म भी कहते हैं । साधक को पहले श्रुतालोक से आत्मा को आलोकित करना चाहिए, तभी केवलज्ञान का सूर्य उदय हो सकता है।
आगम और साहित्य - जैन परिभाषा में तीर्थंकर, गणधर तथा श्रुतकेवली प्रणीत शास्त्रों को आगम कहते हैं। अर्थरूप से तीर्थंकर के प्रवचन और सूत्र रूप से गणधर एवं श्रुतकेवली प्रणीत साहित्य को आगम कहते हैं। जिस ज्ञान का मूलस्रोत तीर्थंकर भगवान हैं, आचार्य परम्परा के अनुसार जो श्रुतज्ञान आया है, आ रहा है, वह आगम' कहलाता है अथवा आप्त वचन को आगम कहते हैं। .
जिसके द्वारा पञ्चास्तिकाय, नव पदार्थ जाने जाएं, वह आगम' कहलाता है, इस दृष्टि से केवलज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, अवधिज्ञान, १४ पूर्वधर, १० पूर्वधर तथा पूर्वधर इन का जाना हुआ श्रुतज्ञान आगम कहलाता है।
सूत्र, अर्थ और उभयरूप तीनों को आगम: कहते हैं। जो गुरुपरम्परा से अविच्छिन्न गति से आ रहा है, वह आगम कहलाता है, एवं जिस के द्वारा सब ओर से जीवादि पदार्थों को जाना जाए, वह आगम है । जिन की रचना आप्त पुरुषों के द्वारा हुई, वे ही आगम हैं.। आप्त वे कहलाते हैं, जिन में १८ दोष न हों, जिनका जीवन ही शास्त्रमय तथा चारित्रमय बन गया है, उन्हें आप्त कहते हैं। जो ज्ञान रागद्वेष से मलिन हो रहा है, वह ज्ञान निर्दोष नहीं होता। उस में भूलें व गलतियां रह जाती हैं। वह आगम
१. आचार्यपारम्पर्येणागतः, आप्तवचनं वा अनु०, ३८| २. आगम्यन्ते-परिच्छिद्यन्तेऽर्था अनेनेति, केवलमनःपर्ययावधिपूर्वचतुदर्शकदशकनवकरूपः, ठाणा० ३१७/ ३. सूत्रार्थोभयरूपः, आव० ५२४ । ४. गुरुपारम्पयेणागच्छतीति आगमः, श्रा-समन्तात् गम्यन्ते, झायन्ते जीवादयः पदार्था अनेनेति वा, अनु०२१६ । ५,
आप्तप्रणीतः ''आचा० ४८ | ५. अनुयोगद्वार सूत्र का उत्तराई, भाग, सू० १४७ ।