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नन्दीसूत्रम्
(२) तत्पश्चात् पुनः काल के प्रभाव से क्रम बदला, जैसे कि
१ । ५ । । । १३ । १७ । २१ । २५ । मोक्षे गताः ३ । ७ । ११ । १५ । १६ । २३ । २७। सर्वार्थसिद्धौ गताः
तत्पश्चात् फिर कुछ अन्य प्रकार से क्रम बदला
१। ७ । १३ । १६ । २५ । ३१ । ३७ । ४३ । ४६ । ५५ । मोक्षे गताः ४। १० । १६ । २२ । २८ । ३४ । ४० । ४६ । ५२ । ५८ । सर्वाथसिद्धौ गताः
(४) इसके बाद क्रम कुछ अन्य ही प्रकार से बदला, जैसे कि३।८ । १६ । २५ । ११ । १७ । २६ । १४ । ५० । ८०। ५। ७४ । ७२ । ४६ २६ । मोक्षे. ५। १२ । २० । । १५ । ३१ । २८ । २६ । ७३ । ४।६० । ६५ । २७ । १०३ ०। साथ
इसके बाद फिर अन्य ही प्रकार से क्रम बदला२६॥३४॥४२॥५१॥३७।४३१५५।४०१७६।१०६।३१।१००1८1७५॥५५॥ सर्वार्थ सिद्धौ गता। ३१॥३८॥४६॥३५॥४११५७।५४।४२०६६।३०।११६।११।५३।१२६० । मोक्षे गताः
पहली स्थापना से लेकर पांचवीं स्थापना तक लाख या इजार नहीं समझने अपितु यावती संख्या पहले क्रम में दी है, उतने सूर्यवंशीय राजा मोक्ष जाते रहे फिर नीचे की पंक्ति की संख्या वाले सर्वार्थसिद्धि मेंएक मोक्ष में तीन सर्वार्थसिद्ध में, ३मोक्ष में ४ सर्वार्थसिद्धि में, इस प्रकार की गणना करनी चाहिए। पांचवीं . स्थापना में जो शून्य पद दिया है उससे आगे मोक्ष गति में जाना बन्द हो गया, तव श्रीअजितनाथजी के पिता उत्पन्न हो गए थे। तब से लेकर सर्वार्थसिद्धि के अतिरिक्त अन्य अणुत्तर देवलोक में भी जाने लगे किन्त मोक्ष में जाना बन्द हो गया था। जब तक जीव मोक्ष गमन करते रहते हैं, तबतक तीर्थंकर का जन्म नहीं होता । बन्द हुए मार्ग को केवलज्ञान प्राप्त कर तीर्थकर ही खोलते हैं। पार्श्वनाथजी का शासन महावीर के शासन प्रारम्भ होने तक ही वस्तुतः चला-पदि फिर भी कुछ साधु-साध्वियां श्रावक तथा धाविकाएं इस प्रकार भगवान पार्श्वनाथ के अनुयायी रहे, वह वास्तव में शासन नहीं कहलाता। जब महावीर स्वामी का जन्म हआ तब पार्श्वनाथजी के शासन में से केवलज्ञान, और सिद्धत्व की प्राप्ति विल्कुल बन्द हो चुकी थी। पार्श्वनाथजी के चौथे पट्टधर आचार्य तक मुमुक्षु मोक्ष प्राप्त करते रहे । तत्पश्चात् उस शासन में मोक्ष प्राप्त करना बन्द हो गया था। वे उतनी उच्चक्रिया नहीं कर सके, जिससे कर्मों से सर्वथा मुक्त हो सके। भगवान महावीर के निर्वाण के बाद, उनके शासन में ६४ वर्ष तक तीसरे पट्टधर आचार्य जम्ब स्वामीपर्यन्त मोक्ष प्राप्त करने वाले मोक्ष प्राप्त कर सके, तदनन्तर नहीं । परमविशुद्ध संयमाऽभावात् ।
अतः सिद्ध हआ कि तीर्थकर प्राइगराणं धर्म की आदि करने वाले होते हैं। परमविशुद्ध संयम और चरम शरीरी मनुष्यों का जबतक अस्तित्व रहता है, तब तक निर्वाण मार्ग खुला रहता है। परमविशुद्ध धर्म की आदि तीर्थंकर ही करते हैं ।
-अ०रा० को.
१. चउत्थाओ पुरिसजुगाओ जुगन्तकहभमि (कल्पसूत्र)