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द्वादशाङ्ग-परिचय
भावार्थ-इस प्रकार इस द्वादशाङ्ग गणिपिटक की भूत काल में आज्ञा से आराधना करके अनन्त जीव संसार रूप जंगल को पार कर गए।
इसी प्रकार इस बारह अङ्ग गणिपिटक की वर्तमान काल में परिमित जीव आज्ञा से आराधना करके चार गतिरूप संसार को पार करते हैं।
इसी प्रकार इस द्वादशाङ्ग रूप गणिपिटक की आज्ञा से आराधना करके अनन्त जीव चारगति संसार को पार करेंगे।
टीका-इस सूत्र में आज्ञा पालन करने का कालिक फल वर्णन किया है, जैसे कि जिन जीवों ने द्वादशांग गणिपिटक की सम्यकतया आराधना की और कर रहे हैं तथा अनागत काल में करेंगे, वे जीव चतुर्गति रूप संसार अटवी को निर्विघ्नता से उल्लंघन कर रहे हैं और अनागत काल में उल्लंघन करेंगे। जिस प्रकार अटवी विविध प्रकार के हिंस्र जन्तुओं और नाना प्रकार के उपद्रवों से युक्त होती है, उसमें गहन अन्धकार होता है, उसे पार करने के लिए तेजपंज की परम आवश्यकता रहती है, वैसे ही संसार कानन भी शारीरिक, मानसिक, जन्म-मरण और रोग-शोक से परिपूर्ण हैं, उसे श्रुतज्ञान के प्रकाश-पुंज से ही पार किया जा सकता है। आत्म-कल्याण में और पर-कल्याण में परम सहायक श्रुतज्ञान ही है । अतः इसका आलंबन प्रत्येक मुमुक्षु को ग्रहण करना चाहिए, व्यर्थ के विवाद में नहीं पड़ना चाहिए। सूत्रों में जो स्वानुभूतयोग आत्मोत्थान, कल्याण एवं स्वस्थ होने के बताए हैं, उनका यथाशक्ति उपयोग करना चाहिए, तभी कर्मों के बन्धन कट सकते हैं। श्रुतज्ञान स्व-पर प्रकाशक है। सन्मार्ग में चलना और उन्मार्ग को छोड़ना ही इस ज्ञानका मुख्य उद्देश्य है । जहां ज्ञान का प्रकाश होता है, वहाँ रागद्वेषादि चोरों का भय नहीं रहता। निविघ्नता से सुख पूर्वक जीवन यापन करना और अपने भविष्य को उज्ज्वल बनाना यही श्रुतज्ञानी बनने का सार है।
कान मामा
द्वादशाङ्गगणिपिटक का स्थायित्व मूलम् -- इच्चे इग्रं दुवालसंगं गणिपिडगं न कयाइ नासी, न कयाइ न भवइ, . .न कयाइ न भविस्सइ।
भुवि च, भवइ अ, भविस्सइ अ। धुवे, निग्रए, सासए, अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए, निच्चे ।
से जहानामए पंचत्थिकाए, न कयाइ नासी, न कयाइ नत्थि, न कयाइ न भविस्सइ । भुवि च भवइ अ, भविस्सइ अ। धुवे, नियए, सासए, अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए, निच्चे।
एवामेव दुवालसंगे गणिपिडगे न कयाइ नासी, न कयाइ नत्थि, न कयाइ न भविस्सइ । भुवि च, भवइ अ, भविस्सइ अ, धुवे, निअए, सासए, अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए, निच्चे।