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इसीलिए वह' आगमतः भावनन्दी कहलाता है। यदि कोई व्यक्ति अरिहन्त या सिद्ध भगवान का ध्यान कर रहा है, तो उस समय उसे आगमतः अरिहन्त या सिद्धभगवन्त कह सकते हैं, क्योंकि वह ध्येय से कथंचित अभिन्न है। नो आगमतः भावनन्दी, जो नन्दीसूत्र में पांच प्रकार के ज्ञान का स्वरूप वणित है, उनमें से कोई अध्येता मतिज्ञान के अवान्तर भेदों में से किसी एक पद या पंक्ति का जब अध्ययन कर रहा है, तब उसे नो आगमतः भावनन्दी कहते हैं, क्योंकि नो शब्द यहां देश-अर्थात्- आंशिकवाची है, जैसे अंगुली को मनुष्य नहीं कहते, अथवा मकान में लगी हुई ईंट को मकान नहीं कहते, वैसे ही जब कोई नन्दी के पद या पंक्ति को उपयोग सहित पढ़ रहा है, तब उसे नो आगमतः भावनन्दी कहते हैं । जब तक पांच ज्ञान का वर्णनात्मक अध्ययन या विषय, ज्ञान में सम्पूर्ण न झलके, तब तक वह नो आगमतः भावनन्दी ही कहलाता है । तदनु जब सम्पूर्णनन्दी को जानता है और उसमें उपयोग भी है, तब आगमतः भावनन्दी कहते हैं। - नन्दी सूत्र ज्ञानप्रवादपूर्व का तया समस्त आगमों का एक बिन्दुमात्र है। इस दृष्टि से भी इसे नो आगमतः भावनन्दी कहते हैं । पाँच ज्ञान में से कोई भी ज्ञान यदि विशिष्टरूप से उत्पन्न हो जाए, तो वह आनन्दानुभूति का अवश्य कारण बनता है। इस प्रकार नामनन्दी, स्थापनानन्दी, द्रव्यनन्दी और भावनन्दी का संक्षेप में निक्षेप का वर्णन है।
३. अनुगम-अब नन्दी की व्याख्या अनुगम की शैली से की जाती है। जिसके द्वारा, जिसमें, या जिससे सूत्र के अनुकूल गमन किया जाए, उसे अनुगम कहते हैं। जो सूत्र और अर्थ का अनुसरण करने वाला है, उसको अनुगम कहते हैं, कहा भी है
"अणुगम्मइ तेण, तहिं तो व अणुगमणमेव वाणुगमो।
अणुणोऽणुरूवो वा जं, सुत्तत्थाणमणुसरणं ॥" . इस गाथा में अणुणो षष्टत्रन्त पद है, जिसका अर्थ होता है—सूत्र का और गम कहते हैं—व्याख्या को, अर्थात् सूत्र का व्याख्यान करना । अनुगम साधन है और नन्दीसूत्र साध्य है, जहाँ साधन है, वहाँ निश्चित रूप से साध्य का अस्तित्व है, जैसे साध्य का साधन के साथ अन्वय सम्बन्ध है, वैसे ही सूत्र का सम्बन्ध
अनुगम से है । अनुगम सूत्र और अर्थ दोनों का अनुसरण करता है। सूत्र वर्णात्मक होता है और अर्थ . ज्ञानात्मक, सूत्र द्रव्य है, और अर्थ भाव है । सूत्र कारण है और अर्थ कार्य है । अनुगम दोनों का अनुसरण
करने वाला है । अनुगम के बिना आगमों में प्रवृत्ति नहीं होती। अनुगम-अध्ययन की सफल पद्धति है, यह पद्धति छः प्रकार की होती है
१. संहिता–अध्ययन का सबसे पहला क्रम है-वर्णों का या सूत्र का शुद्ध उच्चारण करना । शुद्ध उच्चारण के बिना जंवाइद्धं, वच्चामेलियं, हीणक्खरं, अच्चक्खरं, पयहीणं, घोसहीण, ये अतिचार लगते हैं, जिनसे श्रुतज्ञान की आराधना नहीं, अपितु विराधना होती है ।
२. पदं-यह पद सुबन्त है, या तिङन्त है ? अव्यय है, या क्रियाविशेषण है ? इस प्रकार के पदों का ज्ञान होना भी अनिवार्य है। जब तक इस प्रकार पदों का ज्ञान नहीं होता, तब तक सूत्र और अर्थ का
१. उपयोगो भावलक्षणम् | २. भावम्मि पंच नाणाई ।