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________________ द्वादशाङ्ग परिचय की साक्षात् मूर्ति बन जाता है। इस प्रकार वह भावों का ज्ञाता हो जाता है। इसी प्रकार विज्ञाता भी इस प्रकार आचाराङ्ग सूत्र में चरण करण की प्ररूपणा की गई है। यह आचाराङ्ग का स्वरूप है | सूत्र ४६ ॥ २६१ टीका-नामानुसार इस अङ्ग में मुनि आचार का वर्णन किया गया है। इसके दो श्रुतस्कन्ध हैं. प्रत्येक श्रुतस्कन्ध अध्ययनों में और प्रत्येक अध्ययन उद्देशकों में या चूलिकाओं में विभाजित है । आचरण को आचार कहते हैं अथवा पूर्वपुरुषों द्वारा जिस ज्ञानादि की आसेवन विधि का आचरण किया गया है, उसे आचार कहते हैं। इस प्रकार का प्रतिपादन करने वाले शास्त्र को भी आचार कहते हैं । 'आयारे णं' यह पद करणभूत अथवा आधारभूत में ग्रहण करना चाहिए । यदि 'आयारेणं' ऐसा लिखें तो यह पद करणभूत स्वीकृत है । 'आयारे णं यह पद आधारभूत के रूप में स्वीकृत है। '' वाक्य अलंकार में प्रयुक्त हुआ है। यथा – धनेाचारण करणभूतेन अथवा आचारे आधारभूते इत्यादि जिसके द्वारा श्रमण निर्ग्रन्थों के आचार विषयक शिक्षा मिल सके अथवा जिसमें भ्रमण निर्ग्रन्थों का आचार सर्वाङ्गीण वर्णन किया गया हो, उसे आचार कहते हैं, अथवा आचार प्रधान सूत्र को आचाराङ्गसूत्र कहते हैं । -- सूत्रकार ने 'समगाणं निग्गंधाणं' ये दो पद व्यवहृत किए हैं, इनका आशय यह है कि 'श्रमण' शब्द निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, गैरुक और आजीविक इन पाँच अर्थों में व्यवहृत होता है । निर्ग्रन्थ के अतिरिक्त शेष चार अर्थों के निराकरण करने के लिए भ्रमण के साथ निर्धन्य शब्द का उल्लेख किया है, यथा निगन्ध, सक्क, तावस, गेहव, आजीव, पंचहा समया। इस सूत्र में आचार, गोचर, विनय, वैनयिक, शिक्षा, भाषा, अभाषा, चरण, करण यात्रा मात्रा एवं वृत्ति, इन विषयों का सविस्तर वर्णन है । आचाराङ्ग के अन्तर्वर्ती विषयों का परिचय यदि संक्षेप से दिया जाए तो पांच प्रकार के आचारों का सविस्तर विवेचन है, यही कहना सर्वथोचित होगा। प्रत्येक वाक्य में पांच आचार घटित होते हैं, यही इसमें विशेषता है । ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य, इनके साथ आचार शब्द का प्रयोग किया जाता है। ज्ञानाचार के आठ भेद हैं, जैसे कि विनय, बहुमान, उपधान, अनिह्नवण, व्यंजन, अर्थ और तदुभय नए ज्ञान की प्राप्ति या प्राप्त ज्ञान की रक्षा के लिए जो आचरण आवश्यकीय है, उसे ज्ञानाचार कहते हैं। उसकी आराधना के आठ प्रकार बताए गए हैं। आगमों में सूत्र पढ़ने की जिस समय आज्ञा दी है, उस समय में, उसी सूत्र का अध्ययन करना, इसे काल कहते हैं । ज्ञान और सद्गुरु की भक्ति करना विनय कहलाता है । ज्ञान और ज्ञानदाता के प्रति तीव्र श्रद्धा एवं बहुमान रखना, इसे बहुमान कहते हैं। आगम में जिस सूत्र के पढ़ने के लिए जिस तप का विधान किया गया है, अध्ययन करते समय उसी तप का आवरण करना, इसे उपधान कहते हैं, क्योंकि आगमों का अध्ययन बिना तप किए फलदायक नहीं होता । ज्ञान को और ज्ञानदाता के नाम को न छिपाना इसे अनिह्नवण कहते हैं। सूत्रों का उच्चारण जहां तक हो सके, शुद्ध उच्चारण करना चाहिए । शुद्ध उच्चारण ही निर्जरा का हेतु हो सकता है, अशुद्ध उच्चारण अतिचार का कारण है । अतः शुद्धोच्चारण को ही व्यंजन कहते हैं। सूत्रों का अर्थ मन घडन्त नहीं, अपितु प्रामाणिकता से |
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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