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अङ्गबाह्यश्रुत
२६. विहारकल्प, २७. चरणविधि, २८. आतुरप्रत्याख्यान और २६. महाप्रत्याख्यान, इत्यादि, यह उत्कालिक-श्रुत का वर्णन सम्पूर्ण हुआ।
टीका-इस सूत्र में कालिक और उत्कालिक सूत्रों के पवित्र नामोल्लेख किए गए हैं। जो दिन और रात्रि के पहले और पिछले पहरे में पढ़े जाते हैं, वे कालिक, जिनका कालवेला वर्जकर अध्ययन किया जाता है, वे उत्कालिक होते हैं अर्थात् वे अस्वाध्याय के समय को छोड़ कर शेष रात्रि और दिन में पढ़े जाते हैं । इसी प्रकार वृत्तिकार व धूर्णिकार भी लिखते हैं, जैसे कि___ "कालिकमुस्कालिके च, तत्र यहिवसनिशाप्रयमपश्चिम पौरुषीद्वय एव पठ्यते तत्कालिकम्, कालेन निवृत्तं कालिकमिति व्युत्पत्तेः, यत्पुनः कालवेलावजं पठ्यते तदुत्कालिकम्, शाह च चूर्णिकृत्-तस्थ कालियं जं दिणराई [ए] (ग) पढमचरमपोरिसीसु पढिज्जइ। जं पुण कालवेलावज्जं पढिज्जइ तं उक्कालियं ति।
उत्कालिक-कालिक श्रुत का परिचय दशवैकालिक और कल्पाकल्प ये दो सूत्र, स्थविर आदि कल्पों का प्रतिपादन करने वाले हैं। ___ महाप्रज्ञापना-सूत्र में प्रज्ञापनासूत्र की अपेक्षा से जीवादि पदार्थों का सविशेष वर्णन किया गया है। ... प्रमादाप्रमाद-इसमें मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा इत्यादि प्रमाद का वर्णन है। अपने कर्तव्य एवं अनुष्ठान में सतर्क रहना अप्रमाद है। प्रमाद संसार का राजमार्ग है और अप्रमाद मोक्ष का, इनका वर्णन उक्त सूत्र में वर्णित है।
सूर्यप्रज्ञप्ति-इस सूत्र में सूर्य का सविस्तर स्वरूप वणित है।
पौरुषीमण्डल-इसमें मुहर्त, प्रहर आदि कालमान का वर्णन है, जैसे आजकल जंतर-मंतर से, घड़ी से, समय का ज्ञान होता है। वैसे ही इस सत्र में यही विज्ञान उल्लिखित था, जो कि आजकल अनपलब्ध है। ___ मण्डलप्रवेश-जब सूर्य एक मण्डल से दूसरे मण्डल में प्रवेश करता है, इसका विवरण सूत्र में है ।
विद्या-चरण-विनिश्चय-इस सूत्र में विद्या और चारित्र का पूर्णतया विवरण था।
गणिविद्या-जो गच्छ व गण का स्वामी है, उसे गणी कहते हैं। गणी के क्या-क्या कर्तव्य हैं ? कौन-कौन सी विद्याएं उसके अधिक उपयोगी हैं, उनकी नामावली और उनकी आराधना का वर्णन इसका विषय है।
ध्यानविभक्ति-इसमें आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल ध्यान का पूर्णतया विवरण है।
मरणविभक्ति-जैसे जीवन एक कला है, जिसे जीने की कला आ गई, उसे मरण की कला भी सीखनी चाहिए । अकाममरण, सकाममरण, बालमरण तथा पण्डितमरण आदि विषय इस सत्र में वर्णन किए गए हैं।
भारमविशोधि-इसमें आत्म विशुद्धि के विषय को स्पष्ट किया है।
वीतराग श्रत-इसमें वीतराग का स्वरूप बतलाया है, जिसे पढने से जिज्ञासु एवं अध्येता भी वीतरागता का अनुभव करने लग जाता है। . .