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________________ मल्लक के दृष्टान्त से व्यंजनावग्रह २३३ कारण से उस का नाम लेकर जगाता है, ओ देवदत्त ! ओ देवदत्त !! इस प्रकार उस सुप्त व्यक्ति को जगाने के लिए अनेक बार सम्बोधित किया । ऐसे प्रसंग को लक्ष्य में रखकर शिष्य ने गुरु से प्रश्न कियाभगवन् ! क्या एक समय के प्रविष्ट हुए शब्द - पुद्गल श्रोत्र के द्वारा अवगत हो सकते हैं ? गुरु ने इन्कार में उत्तर दिया । शिष्यने पुनः प्रश्न किया – क्या दो समय यावत् दस, संख्यात तथा असंख्यात समय के प्रविष्ट हुए शब्दपुद्गल ग्रहण किए हुए अवगत होते हैं ? गुरु ने उत्तर दिया – एक समय से लेकर संख्यात समय तक के प्रविष्ट हुए शब्द - पुद्गल श्रोत्र के द्वारा ग्रहण किए हुए अवगत नहीं हो सकते, अपितु असंख्यात समय तक के प्रविष्ट हुए शब्दपुद्गल ग्रहण किए जा सकते हैं ।' हाँ, यह बात ध्यान में अवश्य रखने योग्य है कि पहले समय से लेकर संख्यात समय पर्यन्त श्रोत्र में जो शब्द- पुद्गल प्रविष्ट हुए हैं, वे सब अव्यक्त ज्ञान के परिचायक हैं, जैसे कि कहा भी है- "जं वंजणोग्गहण मिति भणियं विण्णाणं श्रग्वत्तमिति ।" इस का भाव ऊपर स्पष्ट हो चुका है । असंख्यात समय के प्रविष्ट हुए शब्द - पुद्गल ही ज्ञान के उत्पादक होते हैं । व्यंजनावग्रह का कालमान जघन्य आवलिका के असंख्येय भाग मात्र होता है और उत्कृष्ट संख्येय aafeet प्रमाण होता है, वह भी पृथक्त्व आणापाणू प्रमाण जानना चाहिए, जैसे कि कहा भी है"वंजरणोवग्गहकालो, आवलियाऽसंखभागतुल्लो उ । थोवा उक्कोसा पुण, श्राणापाणू पुहु ति ॥” इस सूत्र में शिष्य के लिए चोयग शब्द का प्रयोग किया है, क्योंकि वह अपने किए हुए प्रश्न के उत्तर के लिए प्रेरक है और प्रज्ञापक पद गुरु का वाचक है । वह यथावस्थित सूत्र और अर्थ का प्रतिपादक होने से प्रज्ञापक कहलाता है । मल्लक के दृष्टान्त से व्यञ्जनावग्रह मूलम् — से किं तं मल्लगदिट्ठ तेणं ? मल्लगदिट्ठ तेणं, से जहानामए केइ पुरिसे आवागसीसाओ मल्लगं गहाय तत्थेगं उदगबिंदु पक्खेविज्जा, से नट्ठ े, अण्णेऽवि पक्खिते सेऽविन एवं पक्खिप्पमाणेसु २ होही से उदगबिंदू जेणं तं मल्लगं राहि त्ति, होही से उदगबिंदू जेणं तंसि मल्लगंसि ठाहिति, होही से उदगबिंदू जेणं तं मल्लगं भरिहिति, होही से उदगबिंदू जेणं तं मल्लगं पवाहेहिति । , एवामेव पक्खिप्पमाणेहिं २ प्रणतेहिं पुग्गलेहिं जाहे तं वंजणं पूरिश्रं होइ, ताहे 'हुं' ति करैइ, नो चेव णं जाणइ केवि एस सद्दाइ ? तो ईहं पविसइ, तो जाइ मुगे एस सद्दाइ, तो प्रवायं पविसइ, तत्रो से उवगयं हवइ, तो गं धारणं पविसइ, तो णं धारेइ संखिज्जं वा कालं, असंखिज्जं वा कालं । १. आंखों की पलकें झपकने मात्र में असंख्यात समय लग जाते हैं । २. पृथक्त्व शब्द दो से लेकर 8 तक की संख्या के लिए रूढ है । ३. स्वस्थ व्यक्ति की नब्ज (नाड़ी) एक वार हरकत करने मात्र काल को आणापाणू कहते हैं । एक बार हरकत हुई तो एक आणापाण और नौ बार हरकत हुई तो नौ आणापासू हुए ।
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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