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धारणा
में गुरुजी बोले- भद्र ! वह छ प्रकार की है, जैसे - १. श्रोत्रेन्द्रिय-धारणा, २. चक्षुरिन्द्रियधारणा, ३. घ्राणेन्द्रिय धारणा, ४. रसनेन्द्रिय-धारणा, ५. स्पर्शेन्द्रिय-धारणा, ६. नोइन्द्रियधारणा । उसके ये एक अर्थ वाले, नानाघोष और नाना व्यंजन वाले पाँच नाम होते हैं— जैसे - १. धारणा, २. साधारणा, ३ स्थापना, ४ प्रतिष्ठा, और ५. कोष्ठ, इस प्रकार यह वह धारणा मतिज्ञान है || सूत्र ३४||
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टीका - इस सूत्र में धारणा का उल्लेख किया गया है। उसके भी पूर्ववत् ६ भेद हैं तथा एकार्थक नानाघोष तथा नानाव्यंजन वाले धारणा के पांच पर्यायवांची नाम कहे हैं
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१. धारणा — जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट असंख्यात काल व्यतीत होने पर भी योग्य निमित्त मिलने पर जो स्मृति जाग उठे, उसे धारणा कहते हैं ।"
२. साधारणा—जाने हुए अर्थ को अविच्युति पूर्वक अंतर्मुहूर्त तक धारण किए रखना । ३. स्थापना - निश्चय किए हुए अर्थ को हृदय में स्थापन करना, उसे वासना भी कहते हैं । ४. प्रतिष्ठा - अवाय के द्वारा निर्णीत अर्थों को भेद, प्रभेदों सहित हृदय में स्थापन करना प्रतिष्ठा
कहलाती है ।
५. कोष्ठ – जैसे कोष्ठ में रखा हुआ धान्य विनष्ट नहीं, बल्कि सुरक्षित रहता है, वैसे ही हृदय में सूत्र और अर्थ को सुरक्षित एवं कोष्ठक की तरहधारण करने से ही इसे कोष्ठ कहते हैं । यद्यपि सामान्य रूप से इनका एक ही अर्थ प्रतीत होता है, तदपि भिन्नार्थ भी पर्यायान्तर में कथन किए गए हैं। जिस क्रम से ज्ञान उत्तरोत्तर विकसित होता है, उसी क्रम से सूत्रकार ने अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा का भी निर्देश किया है । अवग्रह के बिना ईहा नहीं, ईहा के बिना अवाय नहीं और इसी प्रकार अवाय के बिना धारणा नहीं हो सकती । अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के विषय में जिनभद्रगणी क्षमाश्रमणजी निम्न प्रकार से लिखते हैं
" सामरणमेत्त गहणं, निच्छयत्रो समयमोग्गहो पढमो । तत्तोऽतरमीहिय वत्थु, विसेसरस जोडवा ॥ सो पुरारीहावायविक्खाश्रो, उग्गहत्ति उवयरिश्र । एस विसावेक्खा, सामन्न गेहए जेण ॥ तत्तोऽणंतरमहा तत्रो, श्रवाश्रो य तन्विसेसस्स । इह सामन्न विसेसावेक्खा, जावन्तिमो भेो ॥ सहावाया निच्छयो, मोमाइ सामन्नं । सन्वत्थावग्गोऽवा ॥
संववहारस्थं पुण, तरतम जोगाभावेऽवाओ, च्चिय धारणा तदन्तम्मि | सम्वत्थ वासणा पुण, भणिया कालन्तर सई य ॥"
॥सूत्र ३४ ॥