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________________ न सल्यानwer नन्दीसूत्रम् . छाया-१. उपयोग-दृष्टसारा, कर्म-प्रसंग-परिघोलन-विशाला। साधुकारफलवती, कर्मसमुत्था भवति बुद्धिः ॥७६॥ पदार्थ-उवोग-उपयोग से दिटूसारा परिणाम को देखने वाली कम्म-पसंग-कार्य के अभ्यास से परिघोलण-चिन्तन से विसाला-विशाल साहक्कार-साधुवाद फलबई-फलवाली कम्म-समुत्थाकर्म से उत्पन्न बुद्वी-बुद्धि-कर्मजा हवइ–होती है। भावार्थ-उपयोग पूर्वक चिन्तन-मनन से कार्यों के लिए परिणाम को देखनेवाली, तथा अभ्यास और विचारने से विशाल एवं विद्वज्जनों से साधुवाद रूप फलवाली, इस तरह कार्य के अभ्यास से समुत्पन्न बुद्धि कर्मजा होती है। ३. कर्मजा बुद्धि के उदाहरण मूसम्–२. हेरण्णिए करिसय, कोलिय डोवे य मुत्ति घय पवए । तुन्नाय वड्डइ य, पूयइ घड चित्तकारे य ॥७७॥ छाया-२. हैरण्यकः कर्षकः कौलिकः, डोवः (दर्वीकारश्च) मौक्तिकघृत-प्लवकः । ११ तुन्नागो वद्धि कश्च, घट-चित्रकारौ च ॥७७।। १. हैरण्यक-सुर्वणकार-सुनार अपने कार्य के विज्ञान से अन्धकार में भी हाथ के स्पर्श मात्र से सुवर्ण, रुप्यक आदि की भली-भांति परीक्षा कर लेता है। २. कर्षक-किसान-कोई तस्कर चोरी करने गया, उसने वणिक के घर में सेंध इस ढंग से लगायी की दीवार में पद्म-कमल की आकृति बन गयी। लोगों ने जब प्रातः उठकर सेंध के स्थल को देखा तो वे चोर की चतुरता की प्रशंसा करने लगे। चोर भी छिप कर वहां जन समूह में आ खड़ा हुआ और अपनी प्रशंसा लोगों से सुनने लगा। उसी जन समुदाय में एक किसान भी था, वह चोर की प्रशंसा सुन कर कहने लगा-"इसमें प्रशंसा या आश्चर्य की क्या बात है ?" जिसका जिस विषय में अभ्यास है, उसके लिए कोई दुष्कर नहीं है।' चोर कृषक के इस वाक्य को सुनकर क्रोधाग्नि से जल उठा, तब चोर ने किसी से पूछा-"यह कौन है ? और कहाँ रहता है ?" चोर सब बातें पूछने के पश्चात् एक दिन तेजधार की छुरी लेकर खेत में पहुंच गया और कहने लगा-"अरे! - मैं तुझे अभी समाप्त करता हूं।" किसान ने कारण पूछा । चोर ने कहा-"तू ने उस दिन मेरी खोदी हुई सेंध की प्रशंसा नहीं की थी, इस कारण।" कर्षक फिर बोला-"हाँ, यह सत्य है, जो व्यक्ति जिस कर्म या कार्य में सदा अभ्यस्त होता है, वह उस विषय में प्रकर्ष को प्राप्त हो जाता है। यह देखो, मैं ही यहाँ
SR No.002487
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAcharya Shree Atmaram Jain Bodh Prakashan
Publication Year1996
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size16 MB
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